गीता अध्याय-१८ मोक्षसंन्यास योग || Operation Gita

 

दोस्तों, गीता अध्याय-१७ श्रद्धात्रय विभाग योग के अंत में श्री कृष्ण ने अर्जुन को बताया था कि हे धनञ्जय, परम सत्य भक्तिमय यज्ञ का लक्ष्य है और उसे सत्‌ शब्द से अभिहित किया जाता है, हे पृथापुत्र, ऐसे यज्ञ का सम्पन्नकर्ता भी ‘सत्‌’ कहलाता है, जिस प्रकार यज्ञ, तप तथा दान के सारे कर्म भी जो परमपुरुष को संपन्न करने के लिए संपन्न किये जाते हैं, ‘सत्‌’ है। हे पार्थ, श्रद्धा के बिना यज्ञ, दान या तप के रूप में जो भी किया जाता है, वह नश्वर है, वह असत्‌ कहलाता है और इस जन्म तथा अगले जन्म – दोनों में ही व्यर्थ जाता है इससे आगे गीता अध्याय-१८ मोक्षसंन्यास योग || Operation Gita में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से क्या कहते है ? आइये जानते हैं इस आर्टिकल के माध्यम से…..

गीता अध्याय-१८ मोक्षसंन्यास योग Operation Gita
गीता अध्याय-१८ मोक्षसंन्यास योग Operation Gita

गीता अध्याय-१८ मोक्षसंन्यास योग || Operation Gita

अर्जुन उवाच

गीता अध्याय-१८ श्लोक=१ 

संन्यासस्य महाबाहो तत्वमिच्छामि वेदितुम्‌। 

त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन।। 

भावार्थ 

अर्जुन ने भगवान श्री कृष्ण से कहा – हे महाबाहो, मै त्याग का उद्देश्य जानने का इच्छुक हूँ और हे केशिनिषूदन, हे हृषीकेश, मै त्यागमय जीवन (संन्यास आश्रम) का भी उद्देश्य जानना चाहता हूँ।

श्री भगवानुवाच

गीता अध्याय-१८ श्लोक=२ 

काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः। 

सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः।।

भावार्थ

भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा – हे अर्जुन, भौतिक इच्छा पर आधारित कर्मों के परित्याग को विद्वान लोग संन्यास कहते हैं और समस्त कर्मों के फल-त्याग को बुद्धिमान लोग त्याग कहते हैं।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=३  

त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः। 

यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे।। 

भावार्थ 

हे पार्थ, कुछ विद्वान घोषित करते हैं कि समस्त प्रकार के सकाम कर्मों को दोषपूर्ण समझ कर त्याग देना चाहिए। किन्तु अन्य विद्वान मानते हैं कि यज्ञ, दान तथा तपस्या के कर्मों को कभी नहीं त्यागना चाहिए।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=४  

निश्चयं शृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम। 

त्यागो हि पुरुषव्याघ्न त्रिविधः सम्प्रकीर्तितः।। 

भावार्थ 

हे भरतश्रेष्ठ, अब त्याग के विषय में मेरा निर्णय सुनो। हे नरशार्दूल, शास्त्रों में त्याग तीन तरह का बनाया गया है।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=५  

यज्ञदानतपः कर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्‌। 

यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्‌।। 

भावार्थ 

हे कुन्तीपुत्र, यज्ञ, दान तथा तपस्या के कर्मों का कभी परित्याग नहीं करना चाहिए, उन्हें अवश्य संपन्न करना चाहिए। निस्संदेह यज्ञ, दान तथा तपस्या महात्माओं को भी शुद्ध बनाते हैं।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=६ 

एतान्यपि तू कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च। 

कर्तव्यानिति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम्‌।। 

भावार्थ 

हे धनञ्जय, इन सारे कार्यों को किसी प्रकार की आशक्ति या फल की आशा के बिना संपन्न करना चाहिए। हे पृथापुत्र, इन्हें कर्तव्य मानकर संपन्न किया जाना चाहिए। यही मेरा अंतिम मत है।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=७  

नियतस्य तु संन्यासः कर्मणो नोपपद्यते। 

मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः।। 

भावार्थ 

हे अर्जुन, निर्दिष्ट कर्तव्यों को कभी नहीं त्यागना चाहिए, यदि कोई मोहवश अपने नियत कर्मों का परित्याग कर देता है, तो ऐसे त्याग को तामसी कहा जाता है।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=८  

दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयातत्यजेत्‌।  

स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत्‌।।

भावार्थ 

हे महाबाहो, जो व्यक्ति नियत कर्मों को कष्टप्रद समझ कर या शारीरिक क्लेश के भय से त्याग देता है, उसके लिए कहा जाता है कि उसने यह त्याग रजोगुण में किया है, ऐसा करने से कभी त्याग का उच्चफल प्राप्त नहीं होता।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=९ 

कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेअर्जुन। 

सङ्गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः।। 

भावार्थ 

हे अर्जुन, जब मनुष्य नियत कर्तव्य को करणीय मानकर करता है और समस्त भौतिक संगति तथा फल की आशक्ति को त्याग देता है, तो उसका त्याग सात्त्विक कहलाता है।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=१० 

न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते। 

त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेघावी छिन्नसंशयः।। 

भावार्थ 

हे  पार्थ, सतोगुण में स्थित बुद्धिमान त्यागी, जो न तो अशुभ कर्म से घृणा करता है, न शुभकर्म से लिप्त होता है, वह कर्म के विषय में कोई संशय नहीं रखता।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=११  

न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः। 

यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते।। 

भावार्थ 

हे कुन्तीपुत्र, निस्संदेह किसी भी देहधारी प्राणी के लिए समस्त कर्मों का परित्याग कर पाना असंभव है, लेकिन जो कर्मफल का परित्याग करता है, वह वास्तव में त्यागी कहलाता है।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=१२ 

अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम्‌। 

भवत्यत्यागिनां प्रेत्य तु संन्यासिनां क्वचित्‌।।

भावार्थ 

हे धनञ्जय, जो त्यागी नहीं है, उसके लिए इच्छित (इष्ट) अनिश्चित (अनिष्ट) तथा मिश्रित – ये तीन प्रकार के कर्मफल मृत्यु के बाद मिलते हैं। लेकिन जो संन्यासी हैं, उन्हें ऐसे फल का सुख-दुख नहीं भोगना पड़ता।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=१३ 

पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे। 

सांख्ये कृत्तांते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्‌।। 

भावार्थ

हे महाबाहो अर्जुन, वेदान्त के अनुसार समस्त कर्म की पूर्ति के लिए पाँच कारण हैं, अब तुम इन्हें मुझसे सुनो।

 

गीता अध्याय-१८ मोक्षसंन्यास योग || Operation Gita

गीता अध्याय-१८ श्लोक=१४  

अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्‌। 

विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्‌।। 

भावार्थ 

हे पार्थ, कर्म का स्थान (शरीर), कर्ता, विभिन्न इन्द्रियाँ, अनेक प्रकार की चेष्टाएँ तथा परमात्मा – ये पाँच कर्म के कारण हैं।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=१५ 

शरीरवाङ्‍मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः।

न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः।।  

भावार्थ 

हे  अर्जुन, मनुष्य अपने शरीर, मन या वाणी से जो भी उचित या अनुचित कर्म करता है, वह इन पाँच कारणों के फलस्वरूप होता है।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=१६  

तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः। 

पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः।। 

भावार्थ 

अतएव जो इन पाँच कारणों को न मानकर अपने आपको ही एकमात्र कर्ता मानता है, वह निश्चय ही बहुत बुद्धिमान नहीं होता और वस्तुओं को सही रूप में नहीं देख सकता।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=१७  

यस्य नाहङ्कृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते। 

हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते।। 

भावार्थ 

हे  पार्थ, जो मिथ्या अहंकार से प्रेरित नहीं है, जिसकी बुद्धि बँधी नहीं है, वह इस संसार में मनुष्यों को मारता हुआ भी नहीं मारता। न ही वह अपने कर्मों से बँधा है।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=१८  

ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना। 

करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसंग्रहः।। 

भावार्थ 

हे अर्जुन, ज्ञान, ज्ञेय तथा ज्ञाता – ये तीनों कर्म को प्रेरणा देने वाले कारण हैं, इन्द्रियाँ (करण), कर्म तथा कर्ता – ये तीन कर्म के संघटक हैं।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=१९  

ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदतः। 

प्रोच्यते गुणसंख्याने यथावच्छृणु तान्यपि।। 

भावार्थ

हे धनञ्जय, प्रकृति के गुणों के अनुसार ही ज्ञान, कर्म तथा कर्ता के तीन-तीन भेद हैं, अब तुम मुझसे इन्हें सुनो।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=२०

सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते। 

अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम्‌।।

  भावार्थ 

हे कुन्तीपुत्र, जिस ज्ञान से अनन्त रूपों में विभक्त सारे जीवों में एक ही अविभक्त आध्यात्मिक प्रकृति देखी जाती है, उसे ही तुम सात्त्विक जानों।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=२१  

पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावांपृथग्विधान्‌।

वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम्‌।।

भावार्थ 

 हे अर्जुन, जिस ज्ञान से कोई मनुष्य शरीरों में भिन्न-भिन्न प्रकार का जीव देखता है, उसे तुम राजसी जानों।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=२२ 

यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम्‌। 

अतत्त्वार्थवदल्पं च तत्तामसमुदाहृतम्‌।।

भावार्थ 

हे कुन्तीपुत्र, वह ज्ञान, जिससे मनुष्य किसी एक प्रकार के कार्य को, जो अति तुच्छ है, सब कुछ मानकर, सत्य को जाने बिना उसमें लिप्त रहता है, तामसी कहा जाता है।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=२३

नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतम्‌।  

अफलप्रेत्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते।।

भावार्थ 

हे पार्थ, कर्म नियमित हैं और जो आशक्ति, राग या द्वेष से रहित कर्मफल की चाह के बिना किया जाता है, वह सात्त्विक कहलाता है।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=२४  

यत्तु कामेत्सुना कर्म साहंकारेण वा पुनः। 

क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम्‌।। 

भावार्थ 

हे धनञ्जय, जो कार्य अपनी इच्छापूर्ति के निमित्त प्रयासपूर्वक एवं मिथ्या अहंकार के भाव से किया जाता है, वह रजोगुणी कहा जाता है।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=२५

अनुबन्धं क्षयं हिंसामनपेक्ष्य च पौरुषम्‌।  

मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते।।

भावार्थ 

हे महाबाहो, जो कर्म मोहवश शास्त्रीय आदेशों की अवहेलना करके तथा भावी बंधन की परवाह किये बिना या हिंसा अथवा अन्यों को दुःख पहुँचाने के लिए, किया जाता है, वह तामसी कहलाता है।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=२६ 

मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः। 

सिद्धयसिद्धयोर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते।। 

 भावार्थ 

हे अर्जुन, जो व्यक्ति भौतिक गुणों के संसर्ग के बिना अहंकाररहित, संकल्प तथा उत्साहपूर्वक अपना कर्म करता है और सफलता अथवा असफलता में अविचलित रहता है, वह सात्त्विक कर्ता कहलाता है।

गीता अध्याय-१८ मोक्षसंन्यास योग || Operation Gita

गीता अध्याय-१८ श्लोक=२७  

रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः। 

हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः।। 

भावार्थ 

हे पार्थ, जो कर्ता कर्म तथा कर्म-फल के प्रति आसक्त होकर फलों का भोग करना चाहता है तथा जो लोभी, सदैव ईर्ष्यालु, अपवित्र और सुख-दुख से विचलित होने वाला है, वह राजसी कहा जाता है।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=२८  

अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकोऽलसः। 

विषादी दीर्घसूत्री च कर्त्ता तामस उच्यते।। 

भावार्थ 

हे अर्जुन, जो कर्ता सदा शास्त्रों के आदेशों के विरुद्ध कार्य करता रहता है, जो भौतिकवादी, हठी, कपटी तथा अन्यों का अपमान करने में पटु है तथा जो आलसी, सदैव खिन्न तथा काम करने में दीर्घसूत्री है, वह तमोगुणी कहलाता है।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=२९  

बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं शृणु। 

प्रोच्चमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनञ्जय।। 

भावार्थ 

हे धनञ्जय, अब मै प्रकृति के तीनों गुणों के अनुसार तुम्हें विभिन्न प्रकार की बुद्धि तथा धृति के विषय में विस्तार से बताऊंगा, तुम इसे सुनो।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=३० 

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये। 

बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी।। 

भावार्थ 

हे पृथापुत्र, वह बुद्धि सतोगुणी है, जिसके द्वारा मनुष्य यह जानता है कि क्या करणीय है और क्या नहीं है, किससे डरना चाहिए किससे नहीं, क्या बाँधने वाला है और क्या मुक्ति देने वाला है।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=३१  

यया धर्ममधर्म च कार्य चाकार्यमेव च। 

अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी।। 

भावार्थ 

हे पृथापुत्र, जो बुद्धि धर्म तथा अधर्म, करणीय तथा अकरणीय में भेद नहीं कर पाती, वह राजसी है।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=३२  

अधर्म धर्ममिति या मन्यते तमसावृता। 

सर्वार्थान्विनपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ राजसी।। 

भावार्थ 

हे पार्थ, जो बुद्धि मोह तथा अहंकार के वशीभूत होकर अधर्म को धर्म और धर्म को अधर्म मानती है और सदैव विपरीत दिशा में प्रयत्न करती है, वह तामसी है।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=३३  

धृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः। 

योगेनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी।।

भावार्थ 

हे पृथापुत्र, जो अटूट है, जिसे योगाभ्यास द्वारा अचल रहकर धारण किया जाता है और जो इस प्रकार मन, प्राण तथा इंद्रियों के कार्यकलापों को वश में रखती है, वह धृति सात्त्विक है।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=३४  

यया तु धर्मकामार्थान्धृत्या धारयतेर्जुनः। 

प्रसङ्गेन फलाकाङ्क्षी धृतिः सा पार्थ राजसी।।

भावार्थ 

लेकिन हे अर्जुन, जिस धृति से मनुष्य धर्म, अर्थ तथा काम के फलों में लिप्त बना रहता है वह राजसी है।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=३५ 

यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च। 

न विमुञ्चति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी।।

भावार्थ 

हे पार्थ, जो धृति स्वप्न, भय, शोक, विषाद तथा मोह से परे नहीं जाती, ऐसी दुर्बुद्धि धृति तामसी है।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=३६  

सुखं त्विदानीं त्रिविधं शृणु मे भरतर्षभ। 

अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति।। 

भावार्थ 

हे भरतश्रेष्ठ, अब मुझसे तीन प्रकार के सुखों के विषय के बारे में सुनो, जिनके द्वारा बद्धजीव भोग करता है और जिसके द्वारा कभी-कभी दुखों का अंत हो जाता है।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=३७

यत्तदग्रे विषमिव परिणामेमृतोपमम्‌। 

तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम्‌।। 

  भावार्थ 

हे धनञ्जय, जो  प्रारंभ में विष जैसा लगता है, लेकिन अंत में अमृत के समान है और जो मनुष्य में आत्म-साक्षात्कार जगाता है, वह सात्विक सुख कहलाता है।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=३८

विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्‌।

परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम्‌।। 

भावार्थ 

हे कुन्तीपुत्र, जो सुख इन्द्रियों द्वारा उनके विषयों के संसर्ग से प्राप्त होता है और जो प्रारम्भ में अमृततुल्य तथा अंत में विषतुल्य लगता है, वह रजोगुणी कहलाता है।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=३९ 

यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः। 

निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम्‌।।

भावार्थ 

हे अर्जुन, जो सुख आत्म-साक्षात्कार के प्रति अन्धा है, जो प्रारम्भ से लेकर अंत तक मोहकारक है और जो निद्रा, आलस्य तथा मोह से उत्पन्न होता है, वह तामसी कहलाता है।

गीता अध्याय-१८ मोक्षसंन्यास योग || Operation Gita

गीता अध्याय-१८ श्लोक=४०  

न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः। 

सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्त्रिभिर्गुणैः।। 

भावार्थ 

हे अर्जुन, इस लोक में, स्वर्ग लोकों में या देवताओं के मध्य में कोई भी ऐसा व्यक्ति विद्यमान नहीं है, जो प्रकृति के तीन गुणों से मुक्त हो।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=४१  

ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप। 

कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैगुणैः।। 

भावार्थ 

हे परन्तप, ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों तथा शूद्रों में प्रकृति के गुणों के अनुसार उनके स्वाभाव द्वारा उत्पन्न गुणों के द्वारा भेद किया जाता है।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=४२ 

शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च। 

ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्‌।। 

भावार्थ 

हे पार्थ, शांतिप्रियता, आत्मसंयम, तपस्या, पवित्रता, सहिष्णुता, सत्यनिष्ठा, ज्ञान, विज्ञान तथा धार्मिकता – ये सारे स्वाभाविक गुण हैं, जिनके द्वारा ब्राह्मण कर्म करते हैं।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=४३  

शौर्य तेजो दृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्‌। 

दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्‌।।

भावार्थ 

हे अर्जुन, वीरता, शक्ति, संकल्प, दक्षता, युद्ध में धैर्य, उदारता तथा नेतृत्व – ये क्षत्रियों के स्वाभाविक गुण हैं।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=४४ 

कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्‌।

परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्‌।।

भावार्थ 

हे कुन्तीपुत्र, कृषि करना, गो-रक्षा तथा व्यापार वैश्यों के स्वाभाविक कर्म है और शूद्रों का कर्म श्रम तथा अन्यों की सेवा करना है।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=४५  

स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः। 

स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु।। 

भावार्थ 

हे महाबाहो, अपने-अपने कर्म के गुणों का पालन करते हुए प्रत्येक व्यक्ति सिद्ध हो सकता है, अब तुम मुझसे सुनो कि यह किस प्रकार किया जा सकता हैं।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=४६  

यतः प्रवृत्तिर्भूतानं येन सर्वमिदं ततम्‌। 

स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः।। 

भावार्थ 

हे अर्जुन, जो सभी प्राणियों का उद्गम है और सर्वव्यापी है, उस भगवान की उपासना करके मनुष्य अपना कर्म करते हुए पूर्णता प्राप्त कर सकता हैं।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=४७ 

श्रेयान्स्वधर्मों विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्‌

स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्‌।।  

भावार्थ 

हे पार्थ, अपने वृत्तिपरक कार्य को करना, चाहे वह कितनी ही त्रुटिपूर्ण ढंग से क्यों न किया जाय, अन्य किसी के कार्य को स्वीकार करने और अच्छी प्रकार की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ है, अपने स्वभाव के अनुसार निर्दिष्ट कर्म कभी भी पाप से प्रभावित नहीं होते।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=४८ 

सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्‌। 

सर्वारम्भा हि दोषेण धुमेनाग्निरिवाविताः।। 

भावार्थ 

हे कुन्तीपुत्र, प्रत्येक उद्योग (प्रयास) किसी न किसी दोष से आवृत होता है, जिस प्रकार अग्नि धुवें से आवृत रहती है, अतएव मनुष्य को चाहिए कि स्वभाव से उत्पन्न कर्म को, भले ही वह दोषपूर्ण क्यों न हो, कभी त्यागे नहीं।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=४९ 

असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः। 

नैष्कर्म्यसिद्धिं परमा संन्यासेनाधिगच्छति।। 

  भावार्थ 

हे अर्जुन, जो आत्मसंयमी तथा अनासक्त है एवं जो समस्तभौतिक भोगों की परवाह नहीं करता, वह संन्यास के अभ्यास द्वारा कर्मफल से मुक्ति की सर्वोच्च सिद्ध-अवस्था प्राप्त कर सकता है।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=५०

सद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे। 

समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा।। 

  भावार्थ 

हे कुन्तीपुत्र, जिस तरह इस सिद्धि से प्राप्त हुआ व्यक्ति परम सिद्धावस्था अर्थात ब्रह्म को, जो सर्वोच्च ज्ञान की अवस्था है, प्राप्त करता है, उसका मै संक्षेप में तुमसे वर्णन करूँगा, उसे तुम जानो।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=५१-५२ -५३

बुद्ध्या विशुद्धया युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च। 

शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च।। 

विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानसः। 

ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः।। 

अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्‌। 

विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते।।

भावार्थ 

हे अर्जुन, अपनी बुद्धि से शुद्ध होकर तथा धैर्यपूर्वक मन को वश में करते हुए, इन्द्रियतृप्ति के विषयों का त्याग कर, राग तथा द्वेष से मुक्त होकर जो व्यक्ति एकान्त स्थान पर वाश करता है, जो थोड़ा खाता है, जो अपने शरीर, मन तथा वाणी को वश में रखता है, जो सदैव समाधि में रहता है तथा पूर्ण विरक्त, मिथ्या अहंकार, मिथ्या शक्ति, मिथ्या गर्व,  काम, क्रोध तथा भौतिक वस्तुओं के संग्रह से मुक्त है, जो मिथ्या स्वामित्व की भावना से रहित तथा शांत है, वह निश्चय ही आत्म-साक्षात्कार के पद को प्राप्त होता है।

 

गीता अध्याय-१८ मोक्षसंन्यास योग || Operation Gita

गीता अध्याय-१८ श्लोक=५४ 

ब्रह्मभूत प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति। 

समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्‌।। 

भावार्थ 

हे अर्जुन, इस प्रकार जो दिव्य पद पर स्थित है, वह तुरंत परब्रह्म का अनुभव करता है और पूर्णतया प्रसन्न हो जाता है। वह न तो कभी शोक करता है, न किसी वस्तु की कामना करता है, वह प्रत्येक जीव पर समभाव रखता है, उस अवस्था में वह मेरी शुद्ध भक्ति को प्राप्त करता है।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=५५  

भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः। 

ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्‌।। 

भावार्थ 

हे पार्थ, केवल भक्ति से मुझ भगवान को यथारूप में जाना जा सकता है जब मनुष्य ऐसी भक्ति से मेरे पूर्ण भावनामृत में होता है, तो वह बैकुंठ जगत में प्रवेश कर सकता है।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=५६  

सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः। 

मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्‌।।

भावार्थ 

हे धनञ्जय, मेरा शुद्ध भक्त मेरे संरक्षण में, समस्त प्रकार के कार्यों से संलग्न रह कर भी मेरी कृपा से नित्य तथा अविनाशी धाम को प्राप्त होता है।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=५७  

चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः। 

बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव।। 

भावार्थ 

हे महाबाहो, सारे कार्यों के लिए मुझ पर निर्भर रहो और मेरे संरक्षण में सदा कर्म करो, ऐसी भक्ति में मेरे प्रति पूर्णतया सचेत रहो।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=५८  

मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यति। 

अथ चेत्त्वमहाङ्‍कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि।।

भावार्थ 

हे अर्जुन, यदि तुम मुझसे भावनाभावित होगे, तो मेरी कृपा से तुम बद्ध जीवन के सारे अवरोधों को लाँघ जाओगे, लेकिन यदि तुम मिथ्या अहंकारवश ऐसी चेतना में कर्म नहीं  करोगे और मेरी बात नहीं सुनोगे, तो तुम विनष्ट हो जाओगे।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=५९ 

यदहङ्‍कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे। 
मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति।। 
भावार्थ 
 हे पाण्डुपुत्र, यदि तुम मेरे निर्देशानुसार कर्म नहीं करते और युद्ध में प्रवृत्त नहीं होते हो, तो तुम कुमार्ग पर जाओगे, तुम्हे अपने स्वभाववश युद्ध में लगना होगा।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=६० 

स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा। 

कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत्‌।।

भावार्थ 

हे पृथापुत्र, इस समय तुम मोहवश मेरे निर्देशानुसार कर्म करने से मना कर रहे हो लेकिन हे कुन्तीपुत्र, तुम अपने ही स्वभाव से उत्पन्न कर्म द्वारा बाध्य होकर वही सब करोगे।

गीता अध्याय-१८ मोक्षसंन्यास योग || Operation Gita

गीता अध्याय-१८ श्लोक=६१  

ईश्वरः सर्वभूतानां हृदेशेऽर्जुन तिष्ठति। 

भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारुढानि मामया।। 

भावार्थ 

 हे अर्जुन, परमेश्वर प्रत्येक जीव के ह्रदय में स्थित है और भौतिक शक्ति से निर्मित यन्त्र में सवार की भांति बैठे समस्त जीवों को अपनी माया से घुमा रहे हैं।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=६२  

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत। 

तत्प्रसादादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्‌।।

भावार्थ 

हे भारत, सब प्रकार से उसी की शरण में जाओ, उसकी कृपा से तुम परम शान्ति को तथा परम नित्यधाम को प्राप्त करोगे।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=६३  

इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्‍गुह्यतरं मया। 

विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु।। 

भावार्थ 

हे धनञ्जय, इस प्रकार मैंने तुम्हें गुह्मतर ज्ञान बतला दिया है, इस पर पूरी तरह से मनन करो और तब जो चाहो सो करो।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=६४ 

सर्वगुह्मतमं भूयः शृणु मे परमं वचः। 

इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम्‌।।

भावार्थ 

हे कुन्तीपुत्र, चूँकि तुम मेरे अत्यन्त प्रिय मित्र हो, अतएव मै तुम्हें अपना परम आदेश, जो सर्वाधि गुह्मज्ञान है, बता रहा हूँ, इसे अपने हित के लिए सुनो।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=६५ 

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु। 

मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे।। 

भावार्थ 

हे अर्जुन, सदैव मेरा चिंतन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो। इस प्रकार तुम निश्चय रूप से मेरे पास आओगे। मै तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मेरे परम प्रिय मित्र हो।

गीता अध्याय-१८ मोक्षसंन्यास योग || Operation Gita

गीता अध्याय-१८ श्लोक=६६  

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। 

अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।। 

भावार्थ 

हे कुन्तीपुत्र, समस्त प्रकार के धर्मो का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ। मै समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूंगा, डरो मत।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=६७ 

इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन। 

न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति।। 

भावार्थ 

हे अर्जुन, यह गुह्मज्ञान उनको कभी भी न बताया जाय जो न तो संयमी हैं, न एकनिष्ठ, न भक्ति में रत है, न ही उसे जो मुझसे द्वेष करता हो।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=६८

य इदं परमं गुह्मं मद्भक्तेष्वभिधास्यति। 

भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः।। 

  भावार्थ 

हे पार्थ, जो व्यक्ति भक्तों को यह परम रहस्य बताता है, वह शुद्धभक्ति को प्राप्त करेगा और अंत में वह मेरे पास वापस आएगा।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=६९  

न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः। 

भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि।।

भावार्थ 

हे धनञ्जय, इस संसार में उसकी अपेक्षा कोई अन्य सेवक न तो मुझे अधिक प्रिय है और न कभी होगा।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=७० 

अध्येष्यते च य इमं धर्म्य संवादमावयोः। 

ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः।। 

भावार्थ 

और हे अर्जुन, मै घोषित करता हूँ कि जो हमारे इस पवित्र संवाद का अध्ययन करता है, वह अपनी बुद्धि से मेरी पूजा करता है।

गीता अध्याय-१८ मोक्षसंन्यास योग || Operation Gita

गीता अध्याय-१८ श्लोक=७१

श्रद्धावाननसूयश्च शृणुयादपि यो नरः। 

सोऽपि मुक्तः शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम्‌।। 

भावार्थ 

और हे महाबाहो, जो भी व्यक्ति श्रद्धा समेत तथा द्वेष रहित होकर इसे सुनता है, वह सारे पापों से मुक्त हो जाता है शुभ लोकों को प्राप्त होता है, जहाँ पुण्यात्माएँ निवास करती हैं।

गीता अध्याय-१८ श्लोक= ७२ 

कच्चिदेतच्छुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा। 

कच्चिदज्ञानसम्मोहः प्रणष्टस्ते धनञ्जय।। 

भावार्थ 

हे पृथापुत्र – हे धनञ्जय, क्या तुमने इसे (इस शास्त्र को) एकाग्र चित्त होकर ? सुना और क्या अब तुम्हारा अज्ञान तथा मोह दूर हो गया है।

अर्जुन उवाच

गीता अध्याय-१८ श्लोक=७३

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत। 

स्थितोऽस्मि गतसंदेहः करिष्ये वचनं तव।।  

भावार्थ 

अर्जुन ने कहा हे कृष्ण – हे अच्युत, अब मेरा मोह दूर हो गया है, आपके अनुग्रह से मुझे मेरी स्मरण शक्ति वापस मिल गई है, अब मै संशयरहित तथा दृढ़ हूँ और आपके आदेशानुसार कर्म करने के लिए उद्यत हूँ।

संजय उवाच

गीता अध्याय-१८ श्लोक=७४ 

इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य महात्मनः। 

संवेदमिममश्रौषमद्भतं रोमहर्षणम्‌।।

भावार्थ 

संजय ने धृतराष्ट्र से कहा, इस प्रकार मैंने कृष्ण तथा अर्जुन इन दोनों महापुरुषों की वार्ता सुनी, और यह सन्देश इतना अद्भुत है कि मेरे शरीर में रोमांच हो रहा है ,

गीता अध्याय-१८ श्लोक=७५ 

व्यासप्रसादाच्छुतवानेतद्गुह्ममहं परम्‌।

योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम्‌।।

भावार्थ 

हे राजन, महर्षि व्यास जी की कृपा से मैंने ये परम गुह्म बातें साक्षात्  कृष्ण के मुख से अर्जुन के प्रति कही जाती हुई सुनी।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=७६  

राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम्‌।

केशवार्जुनयोः पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहुः।। 

भावार्थ 

हे राजन, जब मै कृष्ण तथा अर्जुन के मध्य हुई इस आश्चर्यजनक तथा पवित्र वार्ता का बारम्बार स्मरण करता हूँ, तो प्रति क्षण आह्लाद से गदगद हो उठता हूँ।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=७७

तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः। 

विस्मयो मे महांराजन्हृष्यामि च पुनः पुनः।।  

भावार्थ 

हे राजन, भगवान श्री कृष्ण के अद्भुत रूप का स्मरण करते ही मै अधिकाधिक आश्चर्यचकित होता हूँ और पुनः पुनः हर्षित होता हूँ।

गीता अध्याय-१८ श्लोक=७८

यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः। 

तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।  

भावार्थ 

और अंत में संजय हस्तिनापुर नरेश धृतराष्ट्र से कहते हैं कि – हे राजन, जहाँ योगेश्वर श्री कृष्ण हैं और जहाँ परम धनुर्धर अर्जुन हैं, वहीं ऐश्वैर्य, विजय, अलौकिक शक्ति तथा नीति भी निश्चित रूप से रहती है, ऐसा मेरा मत है।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायांयोगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे मोक्षसंन्यास योगो नामेष्टादशोऽध्यायः समाप्त॥

इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद्भगवद्गीता के श्री कृष्ण- अर्जुन संवाद में मोक्षसंन्यास योग नामक अठारहवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ।

।। हरिः ॐ तत् सत्।।

गीता अध्याय-१८ मोक्षसंन्यास योग || Operation Gita

सारांश

दोस्तों, गीता अध्याय-१८ को मोक्षसंन्यास योग के नाम से जाना जाता है जिसमें भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को गीता के सभी अध्याय के सार और उपसंहार के बारे में विस्तार पूर्वक बतलाया है, जिसमें जीवन के तीन गुणों के महत्त्व और उनके भेदों के बारे में गहराई पूर्वक समझाया है, आइये जानते हैं कि वे क्या हैं…..

अर्जुन ने भगवान श्री कृष्ण से कहा – हे महाबाहो, मै त्याग का उद्देश्य जानने का इच्छुक हूँ और हे केशिनिषूदन, हे हृषीकेश, मै त्यागमय जीवन (संन्यास आश्रम) का भी उद्देश्य जानना चाहता हूँ। भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा – हे अर्जुन, भौतिक इच्छा पर आधारित कर्मों के परित्याग को विद्वान लोग संन्यास कहते हैं और समस्त कर्मों के फल-त्याग को बुद्धिमान लोग त्याग कहते हैं।

हे पार्थ, कुछ विद्वान घोषित करते हैं कि समस्त प्रकार के सकाम कर्मों को दोषपूर्ण समझ कर त्याग देना चाहिए। किन्तु अन्य विद्वान मानते हैं कि यज्ञ, दान तथा तपस्या के कर्मों को कभी नहीं त्यागना चाहिए। हे भरतश्रेष्ठ, अब त्याग के विषय में मेरा निर्णय सुनो। हे नरशार्दूल, शास्त्रों में त्याग तीन तरह का बनाया गया है।

हे कुन्तीपुत्र, यज्ञ, दान तथा तपस्या के कर्मों का कभी परित्याग नहीं करना चाहिए, उन्हें अवश्य संपन्न करना चाहिए। निस्संदेह यज्ञ, दान तथा तपस्या महात्माओं को भी शुद्ध बनाते हैं, हे धनञ्जय, इन सारे कार्यों को किसी प्रकार की आशक्ति या फल की आशा के बिना संपन्न करना चाहिए। हे पृथापुत्र, इन्हें कर्तव्य मानकर संपन्न किया जाना चाहिए। यही मेरा अंतिम मत है।

हे अर्जुन, निर्दिष्ट कर्तव्यों को कभी नहीं त्यागना चाहिए, यदि कोई मोहवश अपने नियत कर्मों का परित्याग कर देता है, तो ऐसे त्याग को तामसी कहा जाता है। हे महाबाहो, जो व्यक्ति नियत कर्मों को कष्टप्रद समझ कर या शारीरिक क्लेश के भय से त्याग देता है, उसके लिए कहा जाता है कि उसने यह त्याग रजोगुण में किया है, ऐसा करने से कभी त्याग का उच्चफल प्राप्त नहीं होता।

हे अर्जुन, जब मनुष्य नियत कर्तव्य को करणीय मानकर करता है और समस्त भौतिक संगति तथा फल की आशक्ति को त्याग देता है, तो उसका त्याग सात्त्विक कहलाता है हे पार्थ, सतोगुण में स्थित बुद्धिमान त्यागी, जो न तो अशुभ कर्म से घृणा करता है, न शुभकर्म से लिप्त होता है, वह कर्म के विषय में कोई संशय नहीं रखता। हे कुन्तीपुत्र, निस्संदेह किसी भी देहधारी प्राणी के लिए समस्त कर्मों का परित्याग कर पाना असंभव है, लेकिन जो कर्मफल का परित्याग करता है, वह वास्तव में त्यागी कहलाता है।

हे धनञ्जय, जो त्यागी नहीं है, उसके लिए इच्छित (इष्ट) अनिश्चित (अनिष्ट) तथा मिश्रित – ये तीन प्रकार के कर्मफल मृत्यु के बाद मिलते हैं। लेकिन जो संन्यासी हैं, उन्हें ऐसे फल का सुख-दुख नहीं भोगना पड़ता। हे महाबाहो अर्जुन, वेदान्त के अनुसार समस्त कर्म की पूर्ति के लिए पाँच कारण हैं, अब तुम इन्हें मुझसे सुनो। हे पार्थ, कर्म का स्थान (शरीर), कर्ता, विभिन्न इन्द्रियाँ, अनेक प्रकार की चेष्टाएँ तथा परमात्मा – ये पाँच कर्म के कारण हैं।

हे  अर्जुन, मनुष्य अपने शरीर, मन या वाणी से जो भी उचित या अनुचित कर्म करता है, वह इन पाँच कारणों के फलस्वरूप होता है। अतएव जो इन पाँच कारणों को न मानकर अपने आपको ही एकमात्र कर्ता मानता है, वह निश्चय ही बहुत बुद्धिमान नहीं होता और वस्तुओं को सही रूप में नहीं देख सकता। हे  पार्थ, जो मिथ्या अहंकार से प्रेरित नहीं है, जिसकी बुद्धि बँधी नहीं है, वह इस संसार में मनुष्यों को मारता हुआ भी नहीं मारता। न ही वह अपने कर्मों से बँधा है।

हे अर्जुन, ज्ञान, ज्ञेय तथा ज्ञाता – ये तीनों कर्म को प्रेरणा देने वाले कारण हैं, इन्द्रियाँ (करण), कर्म तथा कर्ता – ये तीन कर्म के संघटक हैं। हे धनञ्जय, प्रकृति के गुणों के अनुसार ही ज्ञान, कर्म तथा कर्ता के तीन-तीन भेद हैं, अब तुम मुझसे इन्हें सुनो, हे कुन्तीपुत्र, जिस ज्ञान से अनन्त रूपों में विभक्त सारे जीवों में एक ही अविभक्त आध्यात्मिक प्रकृति देखी जाती है, उसे ही तुम सात्त्विक जानों।

हे अर्जुन, जिस ज्ञान से कोई मनुष्य शरीरों में भिन्न-भिन्न प्रकार का जीव देखता है, उसे तुम राजसी जानों। हे कुन्तीपुत्र, वह ज्ञान, जिससे मनुष्य किसी एक प्रकार के कार्य को, जो अति तुच्छ है, सब कुछ मानकर, सत्य को जाने बिना उसमें लिप्त रहता है, तामसी कहा जाता है। हे पार्थ, कर्म नियमित हैं और जो आशक्ति, राग या द्वेष से रहित कर्मफल की चाह के बिना किया जाता है, वह सात्त्विक कहलाता है।

हे धनञ्जय, जो कार्य अपनी इच्छापूर्ति के निमित्त प्रयासपूर्वक एवं मिथ्या अहंकार के भाव से किया जाता है, वह रजोगुणी कहा जाता है। हे महाबाहो, जो कर्म मोहवश शास्त्रीय आदेशों की अवहेलना करके तथा भावी बंधन की परवाह किये बिना या हिंसा अथवा अन्यों को दुःख पहुँचाने के लिए, किया जाता है, वह तामसी कहलाता है। हे अर्जुन, जो व्यक्ति भौतिक गुणों के संसर्ग के बिना अहंकाररहित, संकल्प तथा उत्साहपूर्वक अपना कर्म करता है और सफलता अथवा असफलता में अविचलित रहता है, वह सात्त्विक कर्ता कहलाता है।

 

हे पार्थ, जो कर्ता कर्म तथा कर्म-फल के प्रति आसक्त होकर फलों का भोग करना चाहता है तथा जो लोभी, सदैव ईर्ष्यालु, अपवित्र और सुख-दुख से विचलित होने वाला है, वह राजसी कहा जाता है। हे अर्जुन, जो कर्ता सदा शास्त्रों के आदेशों के विरुद्ध कार्य करता रहता है, जो भौतिकवादी, हठी, कपटी तथा अन्यों का अपमान करने में पटु है तथा जो आलसी, सदैव खिन्न तथा काम करने में दीर्घसूत्री है, वह तमोगुणी कहलाता है।

हे धनञ्जय, अब मै प्रकृति के तीनों गुणों के अनुसार तुम्हें विभिन्न प्रकार की बुद्धि तथा धृति के विषय में विस्तार से बताऊंगा, तुम इसे सुनो। हे पृथापुत्र, वह बुद्धि सतोगुणी है, जिसके द्वारा मनुष्य यह जानता है कि क्या करणीय है और क्या नहीं है, किससे डरना चाहिए किससे नहीं, क्या बाँधने वाला है और क्या मुक्ति देने वाला हैहे पृथापुत्र, जो बुद्धि धर्म तथा अधर्म, करणीय तथा अकरणीय में भेद नहीं कर पाती, वह राजसी है।

हे पार्थ, जो बुद्धि मोह तथा अहंकार के वशीभूत होकर अधर्म को धर्म और धर्म को अधर्म मानती है और सदैव विपरीत दिशा में प्रयत्न करती है, वह तामसी है। हे पृथापुत्र, जो अटूट है, जिसे योगाभ्यास द्वारा अचल रहकर धारण किया जाता है और जो इस प्रकार मन, प्राण तथा इंद्रियों के कार्यकलापों को वश में रखती है, वह धृति सात्त्विक है।

लेकिन हे अर्जुन, जिस धृति से मनुष्य धर्म, अर्थ तथा काम के फलों में लिप्त बना रहता है वह राजसी है। हे पार्थ, जो धृति स्वप्न, भय, शोक, विषाद तथा मोह से परे नहीं जाती, ऐसी दुर्बुद्धि धृति तामसी है। हे भरतश्रेष्ठ, अब मुझसे तीन प्रकार के सुखों के विषय के बारे में सुनो, जिनके द्वारा बद्धजीव भोग करता है और जिसके द्वारा कभी-कभी दुखों का अंत हो जाता है।

हे धनञ्जय, जो  प्रारंभ में विष जैसा लगता है, लेकिन अंत में अमृत के समान है और जो मनुष्य में आत्म-साक्षात्कार जगाता है, वह सात्विक सुख कहलाता है। हे कुन्तीपुत्र, जो सुख इन्द्रियों द्वारा उनके विषयों के संसर्ग से प्राप्त होता है और जो प्रारम्भ में अमृततुल्य तथा अंत में विषतुल्य लगता है, वह रजोगुणी कहलाता है। हे अर्जुन, जो सुख आत्म-साक्षात्कार के प्रति अन्धा है, जो प्रारम्भ से लेकर अंत तक मोहकारक है और जो निद्रा, आलस्य तथा मोह से उत्पन्न होता है, वह तामसी कहलाता है।

 

हे अर्जुन, इस लोक में, स्वर्ग लोकों में या देवताओं के मध्य में कोई भी ऐसा व्यक्ति विद्यमान नहीं है, जो प्रकृति के तीन गुणों से मुक्त हो। हे परन्तप, ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों तथा शूद्रों में प्रकृति के गुणों के अनुसार उनके स्वाभाव द्वारा उत्पन्न गुणों के द्वारा भेद किया जाता है। हे पार्थ, शांतिप्रियता, आत्मसंयम, तपस्या, पवित्रता, सहिष्णुता, सत्यनिष्ठा, ज्ञान, विज्ञान तथा धार्मिकता – ये सारे स्वाभाविक गुण हैं, जिनके द्वारा ब्राह्मण कर्म करते हैं।

हे अर्जुन, वीरता, शक्ति, संकल्प, दक्षता, युद्ध में धैर्य, उदारता तथा नेतृत्व – ये क्षत्रियों के स्वाभाविक गुण हैं। हे कुन्तीपुत्र, कृषि करना, गो-रक्षा तथा व्यापार वैश्यों के स्वाभाविक कर्म है और शूद्रों का कर्म श्रम तथा अन्यों की सेवा करना है। हे महाबाहो, अपने-अपने कर्म के गुणों का पालन करते हुए प्रत्येक व्यक्ति सिद्ध हो सकता है, अब तुम मुझसे सुनो कि यह किस प्रकार किया जा सकता हैं।

हे अर्जुन, जो सभी प्राणियों का उद्गम है और सर्वव्यापी है, उस भगवान की उपासना करके मनुष्य अपना कर्म करते हुए पूर्णता प्राप्त कर सकता हैं। हे पार्थ, अपने वृत्तिपरक कार्य को करना, चाहे वह कितनी ही त्रुटिपूर्ण ढंग से क्यों न किया जाय, अन्य किसी के कार्य को स्वीकार करने और अच्छी प्रकार की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ है, अपने स्वभाव के अनुसार निर्दिष्ट कर्म कभी भी पाप से प्रभावित नहीं होते।

हे कुन्तीपुत्र, प्रत्येक उद्योग (प्रयास) किसी न किसी दोष से आवृत होता है, जिस प्रकार अग्नि धुवें से आवृत रहती है, अतएव मनुष्य को चाहिए कि स्वभाव से उत्पन्न कर्म को, भले ही वह दोषपूर्ण क्यों न हो, कभी त्यागे नहीं। हे अर्जुन, जो आत्मसंयमी तथा अनासक्त है एवं जो समस्तभौतिक भोगों की परवाह नहीं करता, वह संन्यास के अभ्यास द्वारा कर्मफल से मुक्ति की सर्वोच्च सिद्ध-अवस्था प्राप्त कर सकता है।

हे कुन्तीपुत्र, जिस तरह इस सिद्धि से प्राप्त हुआ व्यक्ति परम सिद्धावस्था अर्थात ब्रह्म को, जो सर्वोच्च ज्ञान की अवस्था है, प्राप्त करता है, उसका मै संक्षेप में तुमसे वर्णन करूँगा, उसे तुम जानो।

हे अर्जुन, अपनी बुद्धि से शुद्ध होकर तथा धैर्यपूर्वक मन को वश में करते हुए, इन्द्रियतृप्ति के विषयों का त्याग कर, राग तथा द्वेष से मुक्त होकर जो व्यक्ति एकान्त स्थान पर वाश करता है, जो थोड़ा खाता है, जो अपने शरीर, मन तथा वाणी को वश में रखता है, जो सदैव समाधि में रहता है तथा पूर्ण विरक्त, मिथ्या अहंकार, मिथ्या शक्ति, मिथ्या गर्व,  काम, क्रोध तथा भौतिक वस्तुओं के संग्रह से मुक्त है, जो मिथ्या स्वामित्व की भावना से रहित तथा शांत है, वह निश्चय ही आत्म-साक्षात्कार के पद को प्राप्त होता है।

हे अर्जुन, इस प्रकार जो दिव्य पद पर स्थित है, वह तुरंत परब्रह्म का अनुभव करता है और पूर्णतया प्रसन्न हो जाता है। वह न तो कभी शोक करता है, न किसी वस्तु की कामना करता है, वह प्रत्येक जीव पर समभाव रखता है, उस अवस्था में वह मेरी शुद्ध भक्ति को प्राप्त करता है। हे पार्थ, केवल भक्ति से मुझ भगवान को यथारूप में जाना जा सकता है जब मनुष्य ऐसी भक्ति से मेरे पूर्ण भावनामृत में होता है, तो वह बैकुंठ जगत में प्रवेश कर सकता है।

हे धनञ्जय, मेरा शुद्ध भक्त मेरे संरक्षण में, समस्त प्रकार के कार्यों से संलग्न रह कर भी मेरी कृपा से नित्य तथा अविनाशी धाम को प्राप्त होता है हे महाबाहो, सारे कार्यों के लिए मुझ पर निर्भर रहो और मेरे संरक्षण में सदा कर्म करो, ऐसी भक्ति में मेरे प्रति पूर्णतया सचेत रहो। हे अर्जुन, यदि तुम मुझसे भावनाभावित होगे, तो मेरी कृपा से तुम बद्ध जीवन के सारे अवरोधों को लाँघ जाओगे, लेकिन यदि तुम मिथ्या अहंकारवश ऐसी चेतना में कर्म नहीं  करोगे और मेरी बात नहीं सुनोगे, तो तुम विनष्ट हो जाओगे।

 हे पाण्डुपुत्र, यदि तुम मेरे निर्देशानुसार कर्म नहीं करते और युद्ध में प्रवृत्त नहीं होते हो, तो तुम कुमार्ग पर जाओगे, तुम्हे अपने स्वभाववश युद्ध में लगना होगा। हे पृथापुत्र, इस समय तुम मोहवश मेरे निर्देशानुसार कर्म करने से मना कर रहे हो लेकिन हे कुन्तीपुत्र, तुम अपने ही स्वभाव से उत्पन्न कर्म द्वारा बाध्य होकर वही सब करोगे। हे अर्जुन, परमेश्वर प्रत्येक जीव के ह्रदय में स्थित है और भौतिक शक्ति से निर्मित यन्त्र में सवार की भांति बैठे समस्त जीवों को अपनी माया से घुमा रहे हैं।

हे भारत, सब प्रकार से उसी की शरण में जाओ, उसकी कृपा से तुम परम शान्ति को तथा परम नित्यधाम को प्राप्त करोगे। हे धनञ्जय, इस प्रकार मैंने तुम्हें गुह्मतर ज्ञान बतला दिया है, इस पर पूरी तरह से मनन करो और तब जो चाहो सो करो। हे कुन्तीपुत्र, चूँकि तुम मेरे अत्यन्त प्रिय मित्र हो, अतएव मै तुम्हें अपना परम आदेश, जो सर्वाधि गुह्मज्ञान है, बता रहा हूँ, इसे अपने हित के लिए सुनो।

हे अर्जुन, सदैव मेरा चिंतन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो। इस प्रकार तुम निश्चय रूप से मेरे पास आओगे। मै तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मेरे परम प्रिय मित्र हो।हे कुन्तीपुत्र, समस्त प्रकार के धर्मो का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ। मै समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूंगा, डरो मत। हे अर्जुन, यह गुह्मज्ञान उनको कभी भी न बताया जाय जो न तो संयमी हैं, न एकनिष्ठ, न भक्ति में रत है, न ही उसे जो मुझसे द्वेष करता हो।

हे पार्थ, जो व्यक्ति भक्तों को यह परम रहस्य बताता है, वह शुद्धभक्ति को प्राप्त करेगा और अंत में वह मेरे पास वापस आएगा। हे धनञ्जय, इस संसार में उसकी अपेक्षा कोई अन्य सेवक न तो मुझे अधिक प्रिय है और न कभी होगा। और हे अर्जुन, मै घोषित करता हूँ कि जो हमारे इस पवित्र संवाद का अध्ययन करता है, वह अपनी बुद्धि से मेरी पूजा करता है।

और हे महाबाहो, जो भी व्यक्ति श्रद्धा समेत तथा द्वेष रहित होकर इसे सुनता है, वह सारे पापों से मुक्त हो जाता है शुभ लोकों को प्राप्त होता है, जहाँ पुण्यात्माएँ निवास करती हैं। हे पृथापुत्र – हे धनञ्जय, क्या तुमने इसे (इस शास्त्र को) एकाग्र चित्त होकर ? सुना और क्या अब तुम्हारा अज्ञान तथा मोह दूर हो गया है।

अर्जुन ने कहा हे कृष्ण – हे अच्युत, अब मेरा मोह दूर हो गया है, आपके अनुग्रह से मुझे मेरी स्मरण शक्ति वापस मिल गई है, अब मै संशयरहित तथा दृढ़ हूँ और आपके आदेशानुसार कर्म करने के लिए उद्यत हूँ।

संजय ने धृतराष्ट्र से कहा, इस प्रकार मैंने कृष्ण तथा अर्जुन इन दोनों महापुरुषों की वार्ता सुनी, और यह सन्देश इतना अद्भुत है कि मेरे शरीर में रोमांच हो रहा है , हे राजन, महर्षि व्यास जी की कृपा से मैंने ये परम गुह्म बातें साक्षात्  कृष्ण के मुख से अर्जुन के प्रति कही जाती हुई सुनी।

हे राजन, जब मै कृष्ण तथा अर्जुन के मध्य हुई इस आश्चर्यजनक तथा पवित्र वार्ता का बारम्बार स्मरण करता हूँ, तो प्रति क्षण आह्लाद से गदगद हो उठता हूँ। हे राजन, भगवान श्री कृष्ण के अद्भुत रूप का स्मरण करते ही मै अधिकाधिक आश्चर्यचकित होता हूँ और पुनः पुनः हर्षित होता हूँ।

और अंत में संजय हस्तिनापुर नरेश धृतराष्ट्र से कहते हैं कि – हे राजन, जहाँ योगेश्वर श्री कृष्ण हैं और जहाँ परम धनुर्धर अर्जुन हैं, वहीं ऐश्वैर्य, विजय, अलौकिक शक्ति तथा नीति भी निश्चित रूप से रहती है, ऐसा मेरा मत है।

दोस्तों, आशा करता हूँ कि यह आर्टिकल गीता अध्याय-१८ मोक्षसंन्यास योग || Operation Gita आपके ज्ञान के भंडार को पहले से और बेहतर बनायेगा साथ ही आपको              बुद्धजीवियों की श्रेणी में लेकर जायेगा, तो आज के लिए सिर्फ इतना ही, अगले आर्टिकल में हम फिर मिलेंगे, किसी नए टॉपिक के साथ, तब तक के लिए,                      जय श्री कृष्णा

लेखक परिचय

इस वेबसाइट के संस्थापक अमित दुबे हैं, जो दिल्ली में रहते हैं, एक Youtuber & Blogger हैं, किताबें पढ़ने और जानकारियों को अर्जित करके लोगों के साथ शेयर करने के शौक के कारण सोशल मीडिया के क्षेत्र में आये हैं और एक वेबसाइट तथा दो Youtube चैनल के माध्यम से लोगों को Motivate करने तथा ज्ञान का प्रसार करने का काम कर रहे हैं।

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