दोस्तों, गीता अध्याय-६ (आत्मसंयम योग) में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को सभी विषयों से इन्द्रियों के संयम के बारे में बताया है, कर्म और ज्ञान के बारे में बताया है साथ में यह भी बताया है कि जो सुख और दुःख दोनों ही परिस्थितियों में अपने मन को समान स्थिति में पाए वही असली योगी है, इससे आगे श्री कृष्ण और क्या कहते हैं, आइये जानते हैं गीता अध्याय-७ ज्ञान विज्ञान योग || Operation Gita के माध्यम से।
गीता अध्याय-७ ज्ञान विज्ञान योग || Operation Gita
श्रीभगवानुवाच
अध्याय-७ श्लोक=१
मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः।
असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु।।
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भावार्थ
भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा – हे धनञ्जय, अब सुनो कि तुम किस तरह मेरी भावना से पूर्ण होकर और मन को मुझमे आसक्त करके योगाभ्यास करते हुए मुझे पूर्णतया संशयरहित जान सकते हो।
अध्याय-७ श्लोक=२
ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः।
यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते।।
भावार्थ
हे पार्थ, अब मै तुमसे पूर्ण रूप से व्यावहारिक तथा दिव्यज्ञान कहूंगा, इसे जान लेने पर तुम्हें जानने के लिए और कुछ भी शेष नहीं रहेगा।
अध्याय-७ श्लोक=३
मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्वतः।।
भावार्थ
हे अर्जुन, कई हजार मनुष्यों में से कोई एक सिद्धिं के लिए प्रयत्नशील होता है और इस तरह सिद्धि प्राप्त करने वालों में से विरला ही कोई एक मुझे वास्तव में जान पाता है।
अध्याय-७ श्लोक=४
भुमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च।
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टघा।।
भावार्थ
हे अर्जुन, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा अहंकार – ये आठ प्रकार से विभक्त मेरी भिन्ना (अपरा) प्रकृतियाँ हैं।
अध्याय-७ श्लोक=५
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि में पराम्।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्।।
भावार्थ
हे महाबाहु अर्जुन, इनके अतिरिक्त मेरी एक अन्य पराशक्ति है जो उन जीवों से युक्त है, जो इस भौतिक अपरा प्रकृति के साधनों का विदोहन कर रहे हैं।
अध्याय-७ श्लोक=६
एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय।
अहं कृत्स्त्रस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा।।
भावार्थ
हे पार्थ, सारे प्राणियों का उद्गम इन दोनों शक्तियों में है, इस जगत में जो कुछ भी भौतिक तथा आध्यात्मिक है, उसकी उत्पत्ति तथा प्रलय मुझे ही जानो।
अध्याय-७ अध्याय-७
मत्तः परतरं नान्यत्किश्चिदस्ति धनञ्जय।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सुत्रे मणिगणा इव।।
भावार्थ
हे धनञ्जय, मुझसे श्रेष्ठ कोई सत्य नहीं है, जिस प्रकार मोती धागे में गुंधे रहते हैं, उसी प्रकार सब कुछ मुझ पर ही आश्रित है।
अध्याय-७ श्लोक=८
रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः।
प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु।।
भावार्थ
हे कुन्तीपुत्र, मै जल का स्वाद हूँ, सूर्य तथा चन्द्रमा का प्रकाश हूँ, वैदिक मंत्रों में ओंकार हूँ, आकाश में ध्वनि हूँ तथा मनुष्य में सामर्थ्य हूँ।
अध्याय-७ श्लोक=९
पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ।
जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु।।
भावार्थ
हे अर्जुन, मै पृथ्वी की आद्य सुगंध और अग्नि की ऊष्मा हूँ, मै समस्त जीवों का जीवन तथा तपस्वियों का तप हूँ।
अध्याय-७ श्लोक=१०
बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम्।
बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्।।
भावार्थ
हे पृथापुत्र, यह जान लो कि मै ही समस्त जीवों का अदि बीज हूँ, बुद्धिमानों की बुद्धि तथा समस्त तेजस्वी पुरुषों का तेज हूँ।
अध्याय-७ श्लोक=११
बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।।
भावार्थ
हे अर्जुन, मै बलवानों का कामनाओं तथा इच्छा से रहित बल हूँ, हे भरतश्रेष्ठ मै वह काम हूँ जो धर्म के विरुद्ध नहीं है।
अध्याय-७ श्लोक=१२
ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये।
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि।।
भावार्थ
हे पाण्डुपुत्र, तुम जान लो कि मेरी शक्ति द्वारा सारे गुण प्रकट होते हैं, अब चाहे वो सतोगुण हो, रजोगुण हो या फिर तमोगुण हो, एक प्रकार से मै सब कुछ हूँ, किन्तु हूँ स्वतंत्र, मै प्रकृति के गुणों के अधीन नहीं हूँ, अपितु वे मेरे अधीन हैं।
अध्याय-७ श्लोक=१३
त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत्।
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम्।।
भावार्थ
हे पार्थ, तीन गुणों (सतो,रजो तथा तमो) के द्वारा मोहग्रस्त यह सारा संसार मुझ गुणातीत तथा अविनाशी को नहीं जनता।
अध्याय-७ श्लोक=१४
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।
भावार्थ
हे अर्जुन, प्रकृति के तीन गुणों वाली इस मेरी दैवी शक्ति को पार कर पाना कठिन है, किन्तु जो मेरे शरणागत हो जाते हैं, वे सरलता से इसे पार कर जाते हैं।
अध्याय-७ श्लोक=१५
न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः।
माययापतहृज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः।।
भावार्थ
हे महाबाहु, जो निपट मुर्ख हैं, जो मनुष्यों में अधम हैं, जिनका ज्ञान माया द्वारा हर लिया गया है तथा जो आसुरों की नास्तिक प्रकृति को धारण करने वाले हैं, ऐसे दुष्ट मेरी शरण ग्रहण नहीं करते।
अध्याय-७ श्लोक=१६
चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतोनोऽर्जुन।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।।
भावार्थ
हे भरतश्रेष्ठ, चार प्रकार के पुण्यात्मा मेरी सेवा करते है – आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी तथा ज्ञानी।
अध्याय-७ श्लोक=१७
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः।।
भावार्थ
हे अर्जुन, इनमें से जो परमज्ञानी है और शुद्धभक्ति में लगा रहता है वह सर्वश्रेष्ठ है वह सर्वश्रेष्ठ, क्योंकि मै उसे अत्यंत प्रिय हूँ और वह मुझे प्रिय है।
अध्याय-७ श्लोक=१८
उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्।
आस्थितः स हि युक्तात्मा ममैवानुत्तमां गतिम्।।
भावार्थ
हे पार्थ, निस्संदेह ये सब उदारचेता व्यक्ति हैं, किन्तु जो मेरे ज्ञान को प्राप्त है, उसे मै अपने ही समान मानता हूँ, वह मेरी दिव्यसेवा में तत्पर रहकर मुझ सर्वोच्च उद्देश्य को निश्चित रूप से प्राप्त करता है।
अध्याय-७ श्लोक=१९
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः।।
भावार्थ
हे धनञ्जय, अनेक जान-जन्मान्तर के बाद जिसे सचमुच ज्ञान होता है, वह मुझको समस्त कारणों का कारण जानकर मेरी शरण में आता है, ऐसा महात्मा अत्यंत दुर्लभ होता है।
अध्याय-७ श्लोक=२०
कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया।।
भावार्थ
हे महाबाहो, जिनकी बुद्धि भौतिक इच्छाओं द्वारा मारी गई है, वे देवताओं की शरण में जाते हैं, और वे अपने-अपने स्वभाव के अनुसार पूजा के विशेष विधि-विधानों का पालन करते हैं।
अध्याय-७ श्लोक=२१
यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति।
तस्य तस्याचलां श्रद्धा तामेव विदधाम्यहम्।।
भावार्थ
हे अर्जुन, मै प्रत्येक जीव के ह्रदय में परमात्मा स्वरुप स्थित हूँ, जैसे ही कोई किसी देवता की पूजा करने की इच्छा करता है, मै उसकी श्रद्धा को स्थिर करता हूँ, जिससे वह उसी विशेष देवता की भक्ति कर सके।
अध्याय-७ श्लोक=२२
स तया श्रद्दया युक्तस्तस्याराधनमीहते।
लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान्।।
भावार्थ
हे भरतवंशी, ऐसी श्रद्धा से समन्वित वह देवता विशेष की पूजा करने का यत्न करता है, और अपनी इच्छा की पूर्ति करता है, किन्तु वास्तविकता तो यह है कि ये सारे लाभ केवल मेरे द्वारा प्रदत्त हैं।
अध्याय-७ श्लोक=२३
अंतवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि।।
भावार्थ
हे पार्थ, अल्पबुद्धि वाले व्यक्ति देवताओं की पूजा करते हैं और उन्हें प्राप्त होने वाइस स्वरुप को धारण ले फल सीमित तथा क्षणिक होते है, देवताओं की पूजा करने वाले देवलोक को जाते हैं, किन्तु मेरे भक्त अंततः मेरे परम धाम को प्राप्त होते हैं।
अध्याय-७ श्लोक=२४
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यते मामबुद्धयः।
परं भावमजानन्तो मामव्ययमनुत्तममम्।।
भावार्थ
हे अर्जुन, बुद्धिहीन मनुष्य मुझको ठीक से न जानने के कारण सोचते हैं कि (भगवान कृष्ण) पहले निराकार था और अब मैंने इस स्वरुप को धारण किया है, वे अपने अल्पज्ञान के कारण मेरी अविनाशी तथा सर्वोच्च प्रकृति को नहीं जान पाते।
अध्याय-७ श्लोक=२५
नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्।।
भावार्थ
हे पृथापुत्र, मै मूर्खों तथा अल्पज्ञों के लिए कभी भी प्रकट नहीं हूँ, उनके लिए तो मै अपनी अन्तरंगा शक्ति द्वारा आच्छादित रहता हूँ, अतः वे यह नहीं जान पाते कि मै अजन्मा तथा अविनाशी हूँ।
अध्याय-७ श्लोक=२६
वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन।
भविष्याणि च भूतानि मां तू वेद न कश्चन।।
भावार्थ
हे अर्जुन, श्री भगवान होने के नाते मै जो कुछ भी भूतकाल में घटित हो चुका है, जो वर्तमान में घटित हो रहा है और जो आगे होने वाला है, वह सब कुछ जानता हूँ।
अध्याय-७ श्लोक=२७
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप।।
भावार्थ
हे भरतवंशी, हे शत्रुविजेता, समस्त जीव जन्म लेकर इच्छा तथा घृणा से उत्पन्न द्वंदों से मोहग्रस्त होकर मोह को प्राप्त होते हैं।
अध्याय-७ श्लोक=२८
येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्।
ते द्वंदमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढ़व्रताः।।
भावार्थ
हे अर्जुन, जिन मनुष्यों ने पूर्वजन्मों में तथा इस जन्म में पुण्यकर्म किये हैं और जिनके पापकर्मों का पूर्णतया उच्छेदन हो चूका है, वे मोह के द्वंदों से मुक्त हो जाते हैं और वे संकल्प पूर्वक मेरी सेवा में तत्पर होते हैं।
अध्याय-७ श्लोक=२९
जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये।
ते ब्रह्म तद्दिदुः कृत्स्नंमध्यात्मं कर्म चाखिलम्।।
भावार्थ
हे अर्जुन, जो जरा तथा मृत्यु से मुक्ति पाने के लिए यत्नशील रहते हैं, वे बुद्धिमान व्यक्ति मेरी भक्ति की शरण करते हैं, वे वास्तव में ब्रह्म हैं क्योंकि वे दिव्य कर्मों के विषय में पूरी तरह से जानते हैं।
अध्याय-७ श्लोक=३०
साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः।
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः।।
भावार्थ
हे धनञ्जय, जो मुझ परमेश्वर को मेरी पूर्ण चेतना में रहकर मुझे जगत का, देवताओं का तथा समस्त यज्ञविधियों का नियामक जानते हैं, वे अपनी मृत्यु के समय भी मुझ भगवान को जान और समझ सकते है।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञान विज्ञानं योगो नाम सत्तमोध्यायः समाप्त।
इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद्भगवद्गीता के श्री कृष्ण-अर्जुन संवाद में ज्ञान विज्ञान योग नाम का सातवां अध्याय सम्पूर्ण हुआ।
।। हरिः ॐ तत् सत्।।
सारांश
दोस्तों, गीता अध्याय-७ को (ज्ञान विज्ञान योग) के नाम से जाना जाता है, इसमें प्राचीन भारतीय दर्शन की दो परिभाषाएं हैं जिसमें विज्ञान शब्द को वैदिक दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण माना गया है, सृष्टि के नानात्व का ज्ञान विज्ञान है, और नानात्व से एकत्व की ओर प्रगति ज्ञान है।
और ये दोनों ही दृष्टियां मनुष्य के लिए उचित हैं, इस बारे में विज्ञान के नज़रिये से अपरा और परा प्रकृति के इन दो रूपों के बारे में जो गीता में बताया गया है, वह अवश्य ध्यान देने योग्य है, अपरा प्रकृति में आठ तत्त्व हैं, पंचभूत, मन, बुद्धि और अहंकार।
जिस अंडे से मनुष्य का जन्म होता है उसमे ये आठों रहते हैं, किन्तु यह प्राकृत सर्ग है अर्थात यह जड़ है, इसमें ईश्वर की चेष्टा के संपर्क से जो चेतना आती है उसे परा प्रकृति कहते हैं, और वही जीव है। आठ तत्वों के साथ मिलकर जीव नवां तत्व हो जाता है।
इस अध्याय में भगवान के अनेकों रूपों का उल्लेख किया गया है, जिनके बारे में और विस्तार से दसवें अध्याय विभूतियोग में बताया गया है, यहीं भगवती दृष्टि का भी उल्लेख है जिसका सूत्र-वासुदेवः सर्वसमिति, सब वसु या शरीरों में एक ही देवतत्व है, उसी की संज्ञा विष्णु है।
किन्तु संसार में अपनी-अपनी रूचि के अनुसार अनेक नामों और रूपों में उसी एक देवतत्व की उपासना की,जाती है, हालाँकि वे सभी अपनी-अपनी जगह सही हैं, लेकिन बुद्धिमान व्यक्ति को चहिये कि वह उस ब्रह्मतत्व को पहचाने जो अध्यात्म की विद्या का सर्वोच्च शिखर है।
यहाँ पर श्री कृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि – हे अर्जुन, ये पंचतत्व, मन और बुद्धि ही हूँ, मै ही संसार का उत्पत्तिकर्ता तथा विनाशक हूँ, मेरे भक्त चाहे जिसे भी पूजें अंततः वे मुझे ही प्राप्त होते है, मै योगमाया से अप्रकट रहता हूँ और मुर्ख मुझे केवल साधारण मनुष्य समझते हैं।
हे अर्जुन, कई हजार मनुष्यों में से कोई एक सिद्धिं के लिए प्रयत्नशील होता है और इस तरह सिद्धि प्राप्त करने वालों में से विरला ही कोई एक मुझे वास्तव में जान पाता है। हे अर्जुन, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा अहंकार – ये आठ प्रकार से विभक्त मेरी भिन्ना (अपरा) प्रकृतियाँ हैं।
हे महाबाहु अर्जुन, इनके अतिरिक्त मेरी एक अन्य पराशक्ति है जो उन जीवों से युक्त है, जो इस भौतिक अपरा प्रकृति के साधनों का विदोहन कर रहे हैं। हे पार्थ, सारे प्राणियों का उद्गम इन दोनों शक्तियों में है, इस जगत में जो कुछ भी भौतिक तथा आध्यात्मिक है, उसकी उत्पत्ति तथा प्रलय मुझे ही जानो। हे धनञ्जय, मुझसे श्रेष्ठ कोई सत्य नहीं है, जिस प्रकार मोती धागे में गुंधे रहते हैं, उसी प्रकार सब कुछ मुझ पर ही आश्रित है।
हे कुन्तीपुत्र, मै जल का स्वाद हूँ, सूर्य तथा चन्द्रमा का प्रकाश हूँ, वैदिक मंत्रों में ओंकार हूँ, आकाश में ध्वनि हूँ तथा मनुष्य में सामर्थ्य हूँ।हे अर्जुन, मै पृथ्वी की आद्य सुगंध और अग्नि की ऊष्मा हूँ, मै समस्त जीवों का जीवन तथा तपस्वियों का तप हूँ।हे पृथापुत्र, यह जान लो कि मै ही समस्त जीवों का अदि बीज हूँ, बुद्धिमानों की बुद्धि तथा समस्त तेजस्वी पुरुषों का तेज हूँ।
हे अर्जुन, मै बलवानों का कामनाओं तथा इच्छा से रहित बल हूँ, हे भरतश्रेष्ठ मै वह काम हूँ जो धर्म के विरुद्ध नहीं है।हे पाण्डुपुत्र, तुम जान लो कि मेरी शक्ति द्वारा सारे गुण प्रकट होते हैं, अब चाहे वो सतोगुण हो, रजोगुण हो या फिर तमोगुण हो, एक प्रकार से मै सब कुछ हूँ, किन्तु हूँ स्वतंत्र, मै प्रकृति के गुणों के अधीन नहीं हूँ, अपितु वे मेरे अधीन हैं।
हे अर्जुन, जिन मनुष्यों ने पूर्वजन्मों में तथा इस जन्म में पुण्यकर्म किये हैं और जिनके पापकर्मों का पूर्णतया उच्छेदन हो चूका है, वे मोह के द्वंदों से मुक्त हो जाते हैं और वे संकल्प पूर्वक मेरी सेवा में तत्पर होते हैं।
हे अर्जुन, जो जरा तथा मृत्यु से मुक्ति पाने के लिए यत्नशील रहते हैं, वे बुद्धिमान व्यक्ति मेरी भक्ति की शरण करते हैं, वे वास्तव में ब्रह्म हैं क्योंकि वे दिव्य कर्मों के विषय में पूरी तरह से जानते हैं। हे धनञ्जय, जो मुझ परमेश्वर को मेरी पूर्ण चेतना में रहकर मुझे जगत का, देवताओं का तथा समस्त यज्ञविधियों का नियामक जानते हैं, वे अपनी मृत्यु के समय भी मुझ भगवान को जान और समझ सकते है।
दोस्तों, आशा करता हूँ कि यह आर्टिकल गीता अध्याय-७ ज्ञान विज्ञान योग || Operation Gita आपके ज्ञान के भंडार को पहले से और बेहतर बनायेगा साथ ही आपको बुद्धजीवियों की श्रेणी में लेकर जायेगा, तो आज के लिए सिर्फ इतना ही, अगले आर्टिकल में हम फिर मिलेंगे, किसी नए टॉपिक के साथ, तब तक के लिए, जय हिन्द-जय भारत
लेखक परिचय
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