गीता अध्याय-९ राजगुह्य योग || Operation Gita

दोस्तों, गीता अध्याय-८ अक्षर ब्रह्मं योग के अंत में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को बताया था कि हे अर्जुन, जो व्यक्ति भक्तिमार्ग स्वीकार करता है, वह देवाध्ययन, तपस्या, दान, दार्शनिक तथा सकाम कर्म करने से प्राप्त होने वाले फलों से वंचित नहीं होता, वह मात्र भक्ति संपन्न करके इन समस्त फलों की प्राप्ति करता है और अंत में परम नित्यधाम को प्राप्त होता है। इससे आगे गीता अध्याय-९ राजगुह्य योग || Operation Gita में श्री कृष्ण अर्जुन से क्या कहते हैं, आइये जानते हैं इस आर्टिकल के माध्यम से।

गीता अध्याय-९ राजगुह्य योग || Operation Gita
गीता अध्याय-९ राजगुह्य योग || Operation Gita

गीता अध्याय-९ राजगुह्य योग || Operation Gita

भगवानुवाच

अध्याय-९ श्लोक=१ 

इदं तु ते गुह्मतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे। 

ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्।।

भावार्थ

श्री भगवान ने कहा – हे अर्जुन, चूँकि तुम मुझसे कभी ईर्ष्या नहीं करते, इसलिए मै तुम्हें यह परम गुह्मज्ञान तथा अनुभूति बतलाऊँगा, जिसे जानकर तुम संसार के सभी झंझटों से मुक्त हो जाओगे।

अध्याय-९ श्लोक=२ 

राजविद्या राजगुह्मं पवित्रमिदमुत्तमम्। 

प्रत्यक्षावगमं धर्म्य सुसुखं कर्तुमव्ययम्।।

भावार्थ

हे पार्थ, यह ज्ञान सब विद्याओं का राजा है, जो समस्त रहस्यों में सर्वाधिक गोपनीय है, यह परम शुद्ध है और चूँकि यह आत्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति कराने वाला है, अतः यह धर्म का सिद्धांत है, यह अविनाशी है और अत्यंत सुखपूर्वक संपन्न किया जाता है।

अध्याय-९ श्लोक=३ 

अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप। 

अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि।।

भावार्थ

हे परन्तप, जो लोग भक्ति में श्रद्धा नहीं रखते, वे मुझे प्राप्त नहीं कर पाते, अतः वे इस भौतिक जगत में जन्म-मृत्यु के मार्ग पर वापस आते रहते हैं।

अध्याय-९ श्लोक=४ 

मया ततमिदं सर्व जगदव्यक्त मूर्तिना। 

मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः।।

भावार्थ

हे धनञ्जय, यह सम्पूर्ण जगत मेरे अव्यक्त रूप द्वारा व्याप्त है, समस्त जीव मुझमे हैं किन्तु मै उनमे नहीं हूँ।

अध्याय-९ श्लोक=५ 

न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्। 

भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः।। 

भावार्थ

हे कुन्तीपुत्र, तथापि मेरे द्वारा उत्पन्न सभी वस्तुएँ मुझमे स्थित नहीं रहती, जरा मेरे योग-ऐश्वर्य को देखो यद्यपि मै समस्त जीवों का पालक हूँ और सर्वत्र व्याप्त हूँ, लेकिन मै इस विराट अभिव्यक्ति का अंश नहीं हूँ, क्योंकि मै सृष्टि का कारणस्वरूप हूँ।

अध्याय-९ श्लोक=६ 

यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान। 

तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय।।

भावार्थ

हे अर्जुन, जिस प्रकार सर्वत्र प्रवहमान प्रबल वायु सदैव आकाश में स्थित रहती है, उसी प्रकार समस्त उत्पन्न प्राणियों को मुझमे स्थित जानो।

अध्याय-९ श्लोक=७

सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्। 

कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्।।

भावार्थ 

हे कुन्तीपुत्र, कल्प का अंत होने पर सभी प्राणी मेरी प्रकृति में प्रवेश करते हैं और अन्य कल्प के आरम्भ होने पर मै उन्हें अपनी शक्ति से पुनः उत्पन्न करता हूँ।

 

गीता अध्याय-९ राजगुह्य योग || Operation Gita

अध्याय-९ श्लोक=८ 

प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः। 

भूतग्राममिमं कृत्स्र्मवशं प्रकृतेर्वशात्।। 

भावार्थ

हे पार्थ, सम्पूर्ण विराट जगत मेरे अधीन है, यह मेरी इच्छा से बारम्बार स्वतः प्रकट होता रहता है और मेरी ही इच्छा से अंत में विनष्ट होता है।

अध्याय-९ श्लोक=९ 

न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय। 

उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु।।

भावार्थ

हे धनञ्जय, ये सारे कर्म मुझे नहीं बांध पाते हैं, मै उदासीन की भाँति इन सारे भौतिक कर्मों से सदैव विरक्त रहता हूँ।

अध्याय-९ श्लोक=१० 

मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्। 

हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते।। 

भावार्थ

हे कुन्तीपुत्र, यह भौतिक प्रकृति मेरी शक्तियों में से एक है और मेरी अध्यक्षता में कार्य करती है, जिससे सारे चर तथा अचर प्राणी उत्पन्न होते हैं, इसके शासन में यह जगत बारम्बार सृजित और विनष्ट होता रहता है।

अध्याय-९ श्लोक=११ 

अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।

परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्।।

भावार्थ

हे अर्जुन, जब मै मनुष्य रूप में अवतरित होता हूँ, तो मुर्ख मेरा उपहास करते हैं, वे मुझ परमेश्वर के दिव्य स्वाभाव को नहीं जानते।

अध्याय-९ श्लोक=१२ 

मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः। 

राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः।।

भावार्थ

हे पार्थ, जो लोग इस प्रकार मोहग्रस्त होते हैं, वे आसुरी तथा नास्तिक विचारों के प्रति आकृष्ट रहते हैं, इस मोहग्रस्त अवस्था में उनकी मुक्ति-आशा, उनके सकाम कर्म तथा ज्ञान का अनुशीलन सभी निष्फल हो जाते हैं।

अध्याय-९ श्लोक=१३ 

महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः। 

भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्।। 

भावार्थ

हे अर्जुन, मोहमुक्त महात्माजन दैवी प्रकृति के संरक्षण में रहते हैं, वे पूर्णतः भक्ति में निमग्न रहते हैं क्योंकि वे मुझे आदि तथा अविनाशी भगवान के रूप में जानते हैं।

अध्याय-९ श्लोक=१४

सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च ढृढव्रताः। 

नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते।।

भावार्थ 

हे पार्थ, ये महात्मा मेरी महिमा का नित्य कीर्तन करते हुए ढृढ़संकल्प के साथ प्रयास करते हुए, मुझे नमस्कार करते हुए, भक्तिभाव से निरंतर मेरी पूजा करते हैं।

अध्याय-९ श्लोक=१५ 

ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते। 

एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम्।। 

भावार्थ

हे अर्जुन, अन्य लोग जो ज्ञान के अनुशीलन द्वारा यज्ञ में लगे रहते हैं, वे भगवान की पूजा उनके अद्वय रूप में, विविध रूपों में तथा विश्व रूप में करते हैं।

अध्याय-९ श्लोक=१६

अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहामौषधम्।

मन्त्रौहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम्।।

भावार्थ 

 हे धनञ्जय, किन्तु मै ही कर्मकाण्ड, मै ही यज्ञ, पितरों को दिया जाने वाला तर्पण, औषधि, दिव्य ध्वनि (मंत्र), घी, अग्नि तथा आहुति। हूँ

अध्याय-९ श्लोक=१७ 

पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः। 

वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक्साम यजुरेव च।। 

भावार्थ

हे पृथापुत्र, मै इस ब्रह्माण्ड का पिता, माता, आश्रय तथा पितामह हूँ, मै ज्ञेय (जानने योग्य), शुद्धिकर्ता तथा ओंकार हूँ, मै ऋग्वेद, सामवेद तथा यजुर्वेद भी हूँ।

अध्याय-९ श्लोक=१८ 

गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्‌।

प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्।।

भावार्थ

हे अर्जुन, मै ही लक्ष्य हूँ, मै ही पालनकर्ता हूँ, स्वामी, साक्षी, धाम, शरणस्थली, तथा अत्यंत प्रिय मित्र भी मै ही हूँ, मै ही सृष्टि तथा प्रलय, सबका आधार, आश्रय तथा अविनाशी बीज भी मै ही हूँ।

अध्याय-९ श्लोक=१९ 

तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च। 

अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन।। 

भावार्थ

हे अर्जुन, मै ही ताप प्रदान करता हूँ और वर्षा को रोकता तथा लाता हूँ, मै अमरत्व हूँ और साक्षात् मृत्यु भी हूँ, आत्मा तथा पदार्थ दोनों मुझ ही में है।

अध्याय-९ श्लोक=२० 

त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा यज्ञैरिष्ट्‍वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते। 

ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकमश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्‌।।

भावार्थ

हे पार्थ, जो वेदों का अध्ययन करते तथा सोमरस का पान करते हैं, वे स्वर्ग प्राप्ति की गवेषणा करते हुए अप्रत्यक्ष रूप से मेरी पूजा करते हैं, वे पापकर्मों से शुद्ध होकर, इंद्र के पवित्र स्वर्गिक धाम में जन्म लेते हैं, जहाँ वे देवताओं जैसा आनंद भोगते हैं।

अध्याय-९ श्लोक=२१ 

ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति। 

एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते।। 

भावार्थ

हे धनञ्जय, इस प्रकार जब वे (उपासक) विस्तृत स्वर्गिक इन्द्रियसुख को भोग लेते हैं और उनके पुण्यकर्मों के फल क्षीण हो जाते हैं तो वे इस मृत्युलोक में पुनः लौट आते हैं, इस प्रकार जो तीनों वेदों के सिद्धांतों में ढृढ रहकर इन्द्रियसुख की गवेषणा करते हैं, उन्हें जन्म-मृत्यु का चक्र ही मिल पाता है।

गीता अध्याय-९ राजगुह्य योग || Operation Gita

अध्याय-९ श्लोक=२२ 

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते। 

तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।  

भावार्थ

हे पार्थ, किन्तु जो लोग अनन्यभाव से मेरे दिव्य शरीर का ध्यान करते हुए निरंतर मेरी पूजा करते हैं, उनकी जो आवश्यकतायें होती हैं, उन्हें मै पूरा करता हूँ और जो कुछ उनके पास है, उसकी रक्षा करता हूँ।

अध्याय-९ श्लोक=२३ 

येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः। 

तेऽपि मामेव कौन्तेय याजन्त्यविधिपूर्वकम्।।

भावार्थ

हे कुन्तीपुत्र, जो लोग अन्य देवताओं के भक्त हैं और उनकी श्रद्धापूर्वक पूजा करते हैं, वास्तव में वे भी मेरी ही पूजा करते  हैं, किन्तु वे यह त्रुटिपूर्ण ढंग से करते हैं।

अध्याय-९ श्लोक=२४

अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च। 

न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते।। 

भावार्थ

हे अर्जुन, मै ही समस्त यज्ञों का एक मात्र भोक्ता तथा स्वामी हूँ, अतः जो लोग मेरे वास्तविक दिव्य स्वभाव को नहीं पहचान पाते, वे निचे गिर जाते हैं।

अध्याय-९ श्लोक=२५ 

यान्ति देवव्रता देवान्पितृन्यान्ति पितृवताः। 

भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्।। 

भावार्थ

हे अर्जुन, जो देवताओं की पूजा करते हैं, वे देवताओं के बीच जन्म लेंगे, जो पितरों को पूजते है, वे पितरों के पास जाते हैं, जो भूत- प्रेतों की उपासना करते हैं, वे उन्हीं के बीच जन्म लेते हैं और जो मेरी पूजा करते हैं वे मेरे साथ निवास करते हैं।

अध्याय-९ श्लोक=२६

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति। 

तदहं भक्त्युपह्वतमश्नामि प्रयतात्मनः।। 

भावार्थ 

हे पार्थ, यदि कोई प्रेम तथा भक्ति के साथ मुझे पत्र, पुष्प, फल या जल प्रदान करता है, तो मै उसे स्वीकार करता हूँ।

अध्याय-९ श्लोक=२७

यत्करोषि यदश्नासी यज्जुहोसी ददासि यत्‌। 

यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्।।

भावार्थ 

हे कुन्तीपुत्र, तुम जो कुछ करते हो, जो कुछ खाते हो, जो कुछ अर्पित करते हो या दान देते हो और जो भी तपस्या करते हो, उसे मुझे अर्पित करते हुए करो।

अध्याय-९ श्लोक=२८

शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः। 

संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि।। 

भावार्थ 

हे धनञ्जय, इस तरह तुम कर्म के बंधन तथा इसके शुभाशुभ फलों से मुक्त हो सकोगे, इस संन्यासयोग में अपने चित्त को स्थिर करके तुम मुक्त होकर मेरे पास आ सकोगे।

अध्याय-९ श्लोक=२९

समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः। 

ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्।।

भावार्थ 

 हे अर्जुन, मै न तो किसी से द्वेष करता हूँ, न ही किसी के साथ पक्षपात करता हूँ, मै सबों के लिए समभाव हूँ, किन्तु जो भी भक्तिपूर्वक मेरी सेवा करता है, वह मेरा मित्र है, मुझमे स्थित रहता है और मै भी उसका मित्र हूँ।

अध्याय-९ श्लोक=३०

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्‌।

साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यसितो हि सः।।  

भावार्थ 

हे पार्थ, यदि कोई जघन्य से जघन्य कर्म करता है, किन्तु यदि वह भक्ति में रत रहता है तो उसे साधु मानना चाहिए, क्योंकि वह अपने संकल्प में अडिग रहता है।

अध्याय-९ श्लोक=३१

क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्ति निगच्छति। 

कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति।। 

भावार्थ  

 हे अर्जुन, ऐसा व्यक्ति तुरंत धर्मात्मा बन जाता है और स्थायी शांति को प्राप्त होता है। हे कुन्तीपुत्र, निडर होकर घोषणा कर दो कि मेरे भक्त का कभी विनाश नहीं होता है।

अध्याय-९ श्लोक=३२ 

मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः। 

स्त्रियो वैश्यास्तथा शुद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्।। 

भावार्थ

हे पार्थ, जो लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं, वे भले ही निम्नजन्मा स्त्री, वैश्य (व्यापारी) तथा शूद्र क्यों न हों, वे परम धाम को प्राप्त करते हैं।

अध्याय-९ श्लोक=३३ 

किं पुनर्ब्राह्मणा पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा। 

अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्।।

भावार्थ

हे अर्जुन, फिर धर्मात्मा ब्राह्मणों, भक्तों तथा राजर्षियों के लिए तो कहना ही क्या है, अतः इस क्षणिक दुखमय संसार में आ जाने पर मेरी प्रेमाभक्ति में अपने आपको लगाओ।

अध्याय-९ श्लोक=३४ 

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु। 

मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः।। 

भावार्थ

इसलिए हे अर्जुन, अपने मन को मेरे नित्य चिंतन में लगाओ, मेरे भक्त बनो, मुझे नमस्कार करो और मेरी ही पूजा करो, इस प्रकार मुझमे पूर्णतया तल्लीन होने पर तुम निश्चित रूप से मुझको प्राप्त होंगे।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञान राजगुह्म योगो नाम नवमोऽध्यायः समाप्त। 

इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद्भगवद्गीता के श्री कृष्ण-अर्जुन संवाद में अक्षर राजगुह्म योग नाम का नौवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ।

।। हरिः ॐ तत् सत्।।

गीता अध्याय-९ राजगुह्य योग || Operation Gita

सारांश

दोस्तों, गीता अध्याय-९ को राजगुह्य योग के नाम से जाना जाता है, यह अध्यात्म विद्या विद्यारागी है जो सबसे श्रेष्ठ माना जाता है, इसमें यह बताया गया है कि कैसे मन की दिव्य शक्तिमयों को ब्रह्ममय बनाया जाय और यही युक्ति राजविद्या होती है।

इसमें ब्रह्मतत्व का निरूपण ही मुख्य है, जिससे व्यक्त जगत का बारंबार निर्माण होता है, भगवान श्री कृष्ण बताते हैं कि वेद का समस्त कर्मकांड यज्ञ, अमृत और मृत्यु, संत और असंत, सभी देवी और देवता आदि सबका पर्यवसान ब्रह्म में है।

श्री कृष्ण यह भी बताते हैं कि हे अर्जुन, इस जगत में जो भिन्न-भिन्न प्रकार की देव-पूजन प्रक्रिया प्रचलन में है, वो सब अपनी-अपनी जगह ठीक ही है, समन्वय की यह दृष्टि भागवत आचार्यों को मान्य थी, वस्तुतः यह उनकी बड़ी शक्ति थी।

हालाँकि इस दृष्टिकोण के बारे में गीता के दसवें अध्याय विभूतियोग में बताया गया है, फ़िलहाल अभी हम यह जानेंगे कि आखिर भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को इस अध्याय में और क्या बताने जा रहे हैं।

श्री भगवान ने कहा – हे अर्जुन, चूँकि तुम मुझसे कभी ईर्ष्या नहीं करते, इसलिए मै तुम्हें यह परम गुह्मज्ञान तथा अनुभूति बतलाऊँगा, जिसे जानकर तुम संसार के सभी झंझटों से मुक्त हो जाओगे।

हे पार्थ, यह ज्ञान सब विद्याओं का राजा है, जो समस्त रहस्यों में सर्वाधिक गोपनीय है, यह परम शुद्ध है और चूँकि यह आत्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति कराने वाला है, अतः यह धर्म का सिद्धांत है, यह अविनाशी है और अत्यंत सुखपूर्वक संपन्न किया जाता है। हे परन्तप, जो लोग भक्ति में श्रद्धा नहीं रखते, वे मुझे प्राप्त नहीं कर पाते, अतः वे इस भौतिक जगत में जन्म-मृत्यु के मार्ग पर वापस आते रहते हैं।

हे धनञ्जय, यह सम्पूर्ण जगत मेरे अव्यक्त रूप द्वारा व्याप्त है, समस्त जीव मुझमे हैं किन्तु मै उनमे नहीं हूँ। हे कुन्तीपुत्र, तथापि मेरे द्वारा उत्पन्न सभी वस्तुएँ मुझमे स्थित नहीं रहती, जरा मेरे योग-ऐश्वर्य को देखो यद्यपि मै समस्त जीवों का पालक हूँ और सर्वत्र व्याप्त हूँ, लेकिन मै इस विराट अभिव्यक्ति का अंश नहीं हूँ, क्योंकि मै सृष्टि का कारणस्वरूप हूँ।

हे अर्जुन, जिस प्रकार सर्वत्र प्रवहमान प्रबल वायु सदैव आकाश में स्थित रहती है, उसी प्रकार समस्त उत्पन्न प्राणियों को मुझमे स्थित जानो। हे कुन्तीपुत्र, कल्प का अंत होने पर सभी प्राणी मेरी प्रकृति में प्रवेश करते हैं और अन्य कल्प के आरम्भ होने पर मै उन्हें अपनी शक्ति से पुनः उत्पन्न करता हूँ।

 

हे पार्थ, सम्पूर्ण विराट जगत मेरे अधीन है, यह मेरी इच्छा से बारम्बार स्वतः प्रकट होता रहता है और मेरी ही इच्छा से अंत में विनष्ट होता है। हे धनञ्जय, ये सारे कर्म मुझे नहीं बांध पाते हैं, मै उदासीन की भाँति इन सारे भौतिक कर्मों से सदैव विरक्त रहता हूँ।

हे कुन्तीपुत्र, यह भौतिक प्रकृति मेरी शक्तियों में से एक है और मेरी अध्यक्षता में कार्य करती है, जिससे सारे चर तथा अचर प्राणी उत्पन्न होते हैं, इसके शासन में यह जगत बारम्बार सृजित और विनष्ट होता रहता है।

हे अर्जुन, जब मै मनुष्य रूप में अवतरित होता हूँ, तो मुर्ख मेरा उपहास करते हैं, वे मुझ परमेश्वर के दिव्य स्वाभाव को नहीं जानते। हे पार्थ, जो लोग इस प्रकार मोहग्रस्त होते हैं, वे आसुरी तथा नास्तिक विचारों के प्रति आकृष्ट रहते हैं, इस मोहग्रस्त अवस्था में उनकी मुक्ति-आशा, उनके सकाम कर्म तथा ज्ञान का अनुशीलन सभी निष्फल हो जाते हैं।

हे अर्जुन, मोहमुक्त महात्माजन दैवी प्रकृति के संरक्षण में रहते हैं, वे पूर्णतः भक्ति में निमग्न रहते हैं क्योंकि वे मुझे आदि तथा अविनाशी भगवान के रूप में जानते हैं। हे पार्थ, ये महात्मा मेरी महिमा का नित्य कीर्तन करते हुए ढृढ़संकल्प के साथ प्रयास करते हुए, मुझे नमस्कार करते हुए, भक्तिभाव से निरंतर मेरी पूजा करते हैं। हे अर्जुन, अन्य लोग जो ज्ञान के अनुशीलन द्वारा यज्ञ में लगे रहते हैं, वे भगवान की पूजा उनके अद्वय रूप में, विविध रूपों में तथा विश्व रूप में करते हैं।

हे धनञ्जय, किन्तु मै ही कर्मकाण्ड, मै ही यज्ञ, पितरों को दिया जाने वाला तर्पण, औषधि, दिव्य ध्वनि (मंत्र), घी, अग्नि तथा आहुति। हूँ हे पृथापुत्र, मै इस ब्रह्माण्ड का पिता, माता, आश्रय तथा पितामह हूँ, मै ज्ञेय (जानने योग्य), शुद्धिकर्ता तथा ओंकार हूँ, मै ऋग्वेद, सामवेद तथा यजुर्वेद भी हूँ। हे अर्जुन, मै ही लक्ष्य हूँ, मै ही पालनकर्ता हूँ, स्वामी, साक्षी, धाम, शरणस्थली, तथा अत्यंत प्रिय मित्र भी मै ही हूँ, मै ही सृष्टि तथा प्रलय, सबका आधार, आश्रय तथा अविनाशी बीज भी मै ही हूँ।

हे अर्जुन, मै ही ताप प्रदान करता हूँ और वर्षा को रोकता तथा लाता हूँ, मै अमरत्व हूँ और साक्षात् मृत्यु भी हूँ, आत्मा तथा पदार्थ दोनों मुझ ही में है। हे पार्थ, जो वेदों का अध्ययन करते तथा सोमरस का पान करते हैं, वे स्वर्ग प्राप्ति की गवेषणा करते हुए अप्रत्यक्ष रूप से मेरी पूजा करते हैं, वे पापकर्मों से शुद्ध होकर, इंद्र के पवित्र स्वर्गिक धाम में जन्म लेते हैं, जहाँ वे देवताओं जैसा आनंद भोगते हैं।

हे धनञ्जय, इस प्रकार जब वे (उपासक) विस्तृत स्वर्गिक इन्द्रियसुख को भोग लेते हैं और उनके पुण्यकर्मों के फल क्षीण हो जाते हैं तो वे इस मृत्युलोक में पुनः लौट आते हैं, इस प्रकार जो तीनों वेदों के सिद्धांतों में ढृढ रहकर इन्द्रियसुख की गवेषणा करते हैं, उन्हें जन्म-मृत्यु का चक्र ही मिल पाता है। हे पार्थ, किन्तु जो लोग अनन्यभाव से मेरे दिव्य शरीर का ध्यान करते हुए निरंतर मेरी पूजा करते हैं, उनकी जो आवश्यकतायें होती हैं, उन्हें मै पूरा करता हूँ और जो कुछ उनके पास है, उसकी रक्षा करता हूँ।

 

हे कुन्तीपुत्र, जो लोग अन्य देवताओं के भक्त हैं और उनकी श्रद्धापूर्वक पूजा करते हैं, वास्तव में वे भी मेरी ही पूजा करते  हैं, किन्तु वे यह त्रुटिपूर्ण ढंग से करते हैं। हे अर्जुन, मै ही समस्त यज्ञों का एक मात्र भोक्ता तथा स्वामी हूँ, अतः जो लोग मेरे वास्तविक दिव्य स्वभाव को नहीं पहचान पाते, वे निचे गिर जाते हैं। हे अर्जुन, जो देवताओं की पूजा करते हैं, वे देवताओं के बीच जन्म लेंगे, जो पितरों को पूजते है, वे पितरों के पास जाते हैं, जो भूत- प्रेतों की उपासना करते हैं, वे उन्हीं के बीच जन्म लेते हैं और जो मेरी पूजा करते हैं वे मेरे साथ निवास करते हैं।

हे पार्थ, यदि कोई प्रेम तथा भक्ति के साथ मुझे पत्र, पुष्प, फल या जल प्रदान करता है, तो मै उसे स्वीकार करता हूँ। हे कुन्तीपुत्र, तुम जो कुछ करते हो, जो कुछ खाते हो, जो कुछ अर्पित करते हो या दान देते हो और जो भी तपस्या करते हो, उसे मुझे अर्पित करते हुए करो। हे धनञ्जय, इस तरह तुम कर्म के बंधन तथा इसके शुभाशुभ फलों से मुक्त हो सकोगे, इस संन्यासयोग में अपने चित्त को स्थिर करके तुम मुक्त होकर मेरे पास आ सकोगे।

 

 हे अर्जुन, मै न तो किसी से द्वेष करता हूँ, न ही किसी के साथ पक्षपात करता हूँ, मै सबों के लिए समभाव हूँ, किन्तु जो भी भक्तिपूर्वक मेरी सेवा करता है, वह मेरा मित्र है, मुझमे स्थित रहता है और मै भी उसका मित्र हूँ। हे पार्थ, यदि कोई जघन्य से जघन्य कर्म करता है, किन्तु यदि वह भक्ति में रत रहता है तो उसे साधु मानना चाहिए, क्योंकि वह अपने संकल्प में अडिग रहता है।

हे अर्जुन, ऐसा व्यक्ति तुरंत धर्मात्मा बन जाता है और स्थायी शांति को प्राप्त होता है। हे कुन्तीपुत्र, निडर होकर घोषणा कर दो कि मेरे भक्त का कभी विनाश नहीं होता है। हे पार्थ, जो लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं, वे भले ही निम्नजन्मा स्त्री, वैश्य (व्यापारी) तथा शूद्र क्यों न हों, वे परम धाम को प्राप्त करते हैं।

हे अर्जुन, फिर धर्मात्मा ब्राह्मणों, भक्तों तथा राजर्षियों के लिए तो कहना ही क्या है, अतः इस क्षणिक दुखमय संसार में आ जाने पर मेरी प्रेमाभक्ति में अपने आपको लगाओ। इसलिए हे अर्जुन, अपने मन को मेरे नित्य चिंतन में लगाओ, मेरे भक्त बनो, मुझे नमस्कार करो और मेरी ही पूजा करो, इस प्रकार मुझमे पूर्णतया तल्लीन होने पर तुम निश्चित रूप से मुझको प्राप्त होंगे।

 

दोस्तों, आशा करता हूँ कि यह आर्टिकल गीता अध्याय-९ राजगुह्य योग || Operation Gita आपके ज्ञान के भंडार को पहले से और बेहतर बनायेगा साथ ही आपको बुद्धजीवियों की श्रेणी में लेकर जायेगा, तो आज के लिए सिर्फ इतना ही, अगले आर्टिकल में हम फिर मिलेंगे, किसी नए टॉपिक के साथ, तब तक के लिए, जय हिन्द-जय भारत

लेखक परिचय

इस वेबसाइट के संस्थापक अमित दुबे हैं, जो दिल्ली में रहते हैं, एक Youtuber & Blogger हैं, किताबें पढ़ने और जानकारियों को अर्जित करके लोगों के साथ शेयर करने के शौक के कारण सोशल मीडिया के क्षेत्र में आये हैं और एक वेबसाइट तथा दो Youtube चैनल के माध्यम से लोगों को Motivate करने तथा ज्ञान का प्रसार करने का काम कर रहे हैं।

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