गीता अध्याय-१० विभूति योग || Operation Gita

दोस्तों, गीता अध्याय-९ राजगुह्य योग के अंत में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को बताया था कि हे अर्जुन, अपने मन को मेरे नित्य चिंतन में लगाओ, मेरे भक्त बनो, मुझे नमस्कार करो और मेरी ही पूजा करो, इस प्रकार मुझमे पूर्णतया तल्लीन होने पर तुम निश्चित रूप से मुझको प्राप्त होंगे। इससे आगे गीता अध्याय-१० विभूति योग || Operation Gita में श्री कृष्ण अर्जुन से क्या कहते हैं, आइये जानते हैं इस आर्टिकल के माध्यम से।

गीता अध्याय-१० विभूति योग || Operation Gita
गीता अध्याय-१० विभूति योग || Operation Gita

गीता अध्याय-१० विभूति योग || Operation Gita

श्री भगवानुवाच

अध्याय-१० श्लोक=१

भूय एव महाबाहो शृणु मे परमं वचः। 

यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया।।

भावार्थ 

श्री भगवान ने कहा – हे महाबाहु अर्जुन, आगे और सुनो, चूँकि तुम मेरे प्रिय सखा हो, अतः मै तुम्हारे लाभ के लिए ऐसा ज्ञान प्रदान करूँगा, जो अभी तक मेरे द्वारा बताये गए ज्ञान से श्रेष्ठ होगा।

अध्याय-१० श्लोक=२ 

न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः। 

अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः।। 

भावार्थ 

हे पार्थ, न तो देवतागण मेरी उत्पत्ति या ऐश्वर्य को जानते हैं और  महर्षिगण ही जानते हैं, क्योंकि मै सभी प्रकार से देवताओं और महर्षियों का भी कारण स्वरुप (उद्गम) हूँ।

अध्याय-१० श्लोक=३ 

यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्‌। 

असम्मूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते।।   

भावार्थ 

हे कुन्तीपुत्र, जो मुझे अजन्मा, अनादि, समस्त लोकों के स्वामी के रूप में जनता है, मनुष्यों में केवल वही मोहरहित और समस्त पापों से मुक्त होता है।

अध्याय-१० श्लोक=४ एवं ५ 

बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोहः क्षमा सत्यं दमः शमः। 

सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च।।  

अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः। 

भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः।।  

भावार्थ 

हे धनञ्जय, बुद्धि, ज्ञान, संशय तथा मोह से मुक्ति, क्षमाभाव, सत्यता, इन्द्रियनिग्रह, मननिग्रह, सुख तथा दुःख, जन्म, मृत्यु, भय, अभय, अहिंसा, समता, तुष्टि, तप, दान, यश तथा अपयश-जीवों के ये विशेष गुण मेरे ही द्वारा उत्पन्न हैं।

अध्याय-१० श्लोक=६ 

महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा। 

मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः।।  

भावार्थ 

हे अर्जुन, सप्तर्षिगण तथा उनसे भी पूर्व चार अन्य महर्षि एवं सारे मनु (मानवजाति के पूर्वज) सब मेरे मन से उत्पन्न हैं और विभिन्न लोकों में निवास करने वाले सारे जीव उनसे अवतरित होते हैं।

अध्याय-१० श्लोक=७ 

एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः। 

सोऽविकल्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः।। 

भावार्थ 

हे महाबाहो, जो मेरे इस ऐश्वर्य तथा योग से पूर्णतया आश्वस्त है, वह मेरी अनन्य भक्ति में तत्पर होता है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।

अध्याय-१० श्लोक=८ 

अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्व प्रवर्तते। 

इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः ।। 

भावार्थ 

हे पार्थ, मै समस्त आध्यात्मिक तथा भौतिक जगतों का कारण हूँ, प्रत्येक वस्तु मुझसे ही उद्भूत है, जो बुद्धिमान यह भलीभांति जानते हैं, वे मेरी प्रेमभक्ति में लगते हैं तथा ह्रदय से पूरी तरह मेरी पूजा में तत्पर होते हैं।

गीता अध्याय-१० विभूति योग || Operation Gita

अध्याय-१० श्लोक=९ 

मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्‌।

कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च।।  

भावार्थ 

हे अर्जुन, मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमे वाश करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बात करते हुए परम संतोष तथा आनंद का अनुभव करते हैं।

अध्याय-१० श्लोक=१० 

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्‌।  

ददामि बद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते।।  

भावार्थ 

हे पार्थ, जो प्रेम पूर्वक मेरी सेवा करने में निरंतर लगे रहते हैं, उन्हें मै ज्ञान प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं।

अध्याय-१० श्लोक=११

तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः। 

नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता।।  

भावार्थ 

 ,हे अर्जुन, मै उन पर विशेष कृपा करने के हेतु उनके हृदयों में वाश करते हुए ज्ञान के प्रकाशमान दीपक के द्वारा अज्ञानजन्य अंधकार को दूर करता हूँ।

 

अर्जुन उवाच

अध्याय-१० श्लोक=१२ एवं १३ 

परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्‌।

पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम्‌।। 

आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा। 

असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे।।  

भावार्थ 

अर्जुन ने कहा – हे मधुसूदन, आप परम भगवान, परमधाम, परमपवित्र, परम सत्य हैं, आप नित्य, दिव्य, आदि  पुरुष, अजन्मा तथा महानतम हैं, नारद, असित, देवल तथा व्यास जैसे ऋषि आपके इस सत्य की पुष्टि करते हैं और अब आप स्वयं भी मुझसे प्रकट कर रहे हैं।

अध्याय-१० श्लोक=१४ 

सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव। 

न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः।। 

भावार्थ 

हे कृष्ण, आपने मुझसे जो कुछ कहा है, उसे मै पूर्णतया सत्य मानता हूँ। हे प्रभु, न तो देवतागण, न असुरगण ही आपके स्वरुप को समझ सकते हैं।

अध्याय-१० श्लोक=१५ 

स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम। 

भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते।। 

भावार्थ 

हे परमपुरुष, हे सबके उद्गम, हे समस्त प्राणियों के स्वामी, हे देवों के देव, हे ब्रह्माण्ड के प्रभु, निस्संदेह एक मात्र आप ही अपने को अपनी अन्तरंगाशक्ति से जानने वाले हैं।

अध्याय-१० श्लोक=१६ 

वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्वात्मविभूतयः। 

याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्व व्याप्य तिष्ठसि।।  

भावार्थ

हे केशव, कृपा करके विस्तारपूर्वक मुझे अपने उन दैवी ऐश्वर्यों को बतायें, जिनके द्वारा आप इन समस्त लोकों में हैं।

अध्याय-१० श्लोक=१७ 

कथं विद्यामहं योगिंस्त्वा सदा परिचिन्तयन्‌।

केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया।।  

भावार्थ 

हे कृष्ण, हे परम योगी, मै किस तरह आपका निरंतर चिंतन करूँ और आपको कैसे जानूं ? हे भगवान, आपका स्मरण किन-किन रूपों में किया जाय ?

अध्याय-१० श्लोक=१८ 

विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन। 

भूयः कथय तृप्तिर्हि शृण्वतो नास्ति मेऽमृतम्‌।। 

भावार्थ 

 हे जनार्दन, आप पुनः विस्तार से अपने ऐश्वर्य तथा योगशक्ति वर्णन करें, मै आपके विषय में सुनकर कभी तृप्त नहीं होता हूँ, क्योंकि जितना ही आपके विषय में सुनता हूँ, उतना ही आपके शब्द-अमृत को चखना चाहता हूँ।

श्री भगवानुवाच

अध्याय-१० श्लोक=१९

हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्मात्मविभूतयः। 

प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे।। 

भावार्थ 

श्री भगवान ने कहा – हाँ, अब मै तुमसे अपने मुख्य-मुख्य वैभवयुक्त रूपों का वर्णन करूँगा, क्योंकि हे अर्जुन, मेरा ऐश्वर्य असीम है।

अध्याय-१० श्लोक=२० 

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः। 

अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च।। 

भावार्थ 

हे अर्जुन, मै समस्त जीवों के हृदयों में स्थित परमात्मा हूँ, मै ही समस्त जीवों का आदि, मध्य तथा अंत हूँ।

अध्याय-१० श्लोक=२१

आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान्‌। 

मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी।।  

भावार्थ 

हे पार्थ, मै आदित्यों में विष्णु, प्रकाशों में तेजस्वी सूर्य, मरुतों में मरुचि तथा नक्षत्रों में चन्द्रमा हूँ।

अध्याय-१० श्लोक=२२

वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः। 

इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना।।

भावार्थ 

हे धनञ्जय, मै वेदों में सामदेव हूँ, देवों में स्वर्ग का राजा इंद्र हूँ, इन्द्रियों में मन हूँ, तथा समस्त जीवों में जीवनशक्ति अर्थात चेतना हूँ।

अध्याय-१० श्लोक=२३ 

रुद्राणां शंकरश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम्‌।

वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम्‌।।

भावार्थ 

 हे अर्जुन, मै समस्त रुद्रों में शिव हूँ, यक्षों तथा राक्षसों में संपत्ति का देवता (कुबेर) हूँ, वसुओं में अग्नि हूँ और समस्त पर्वतों में मेरु हूँ।

अध्याय-१० श्लोक=२४

पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ वृहस्पतिम्‌।

सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागराः।।

भावार्थ 

हे अर्जुन, मुझे समस्त पुरोहितों में मुख्य पुरोहित वृहस्पति जानो, मै ही समस्त सेनानायकों में कार्तिकेय हूँ और समस्त जलाशयों में समुद्र हूँ।

अध्याय-१० श्लोक=२५ 

महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम्‌।

यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः।।  

भावार्थ 

हे पार्थ, मै महर्षियों में भृगु हूँ, वाणी में दिव्य ओंकार हूँ, समस्त यज्ञों में पवित्र नाम का कीर्तन (जप) तथा समस्त अंचलों में हिमाचल हूँ।

अध्याय-१० श्लोक=२६

अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः। 

गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः।। 

भावार्थ 

हे कुन्तीपुत्र, मै समस्त वृक्षों में अश्वत्थ वृक्ष हूँ और देवर्षियों में नारद हूँ, मै गंधर्वों में चित्ररथ हूँ और सिद्ध पुरूषों में कपिल मुनि हूँ।

अध्याय-१० श्लोक=२७ 

उच्चैः श्रवसमसह्वानां विद्धिः माममृतोद्भवम्‌।

एरावतं गजेन्द्राणां नराणां  च नराधिपम्‌।। 

भावार्थ 

हे धनञ्जय, घोड़ो में मुझे उच्चैः श्रवा जानो, अमृत के लिए समुद्र मंथन के समय उत्पन्न हुआ था, गजराजों में मै ऐरावत हूँ तथा मनुष्यों में राजा हूँ।

अध्याय-१० श्लोक=२८

आयुधानमहं वज्रं धेनुनामस्मि कामधुक्‌।

प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः सर्पाणामस्मि वासुकिः।। 

भावार्थ 

हे  अर्जुन, मै हथियारों में वज्र हूँ, गायों में सुरभि, संतति उत्पत्ति के कारणों में प्रेम का देवता कामदेव तथा सर्पों में वासुकि हूँ।

अध्याय-१० श्लोक=२९ 

अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम्‌।

पितॄणामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम्‌।।

भावार्थ 

हे  महाबाहो, अनेक फणों वाले नागों में मै अनन्त हूँ और जलचरों में वरुणदेव  हूँ, मै पितरों में अर्यमा हूँ तथा नियमों के निर्वाहकों में मै मृत्युराज यम हूँ।

अध्याय-१० श्लोक=३० 

प्रह्लादश्चास्मि दैत्यनां कालः कलयतामहम्‌। 

मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम्‌।।

भावार्थ 

हे  पार्थ, दैत्यों में मै दैत्यराज प्रह्लाद हूँ, दमन करने वालों में काल हूँ, पशुओं  में सिंह हूँ तथा पक्षियों में गरुण मै ही हूँ।

अध्याय-१० श्लोक=३१

पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम्‌। 

झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी।। 

भावार्थ 

हे अर्जुन, समस्त पवित्र करने वालों में मै वायु हूँ, शस्त्रधारियों में राम, मछलियों में मगर तथा नदियों में गंगा मै ही हूँ।

अध्याय-१० श्लोक=३२ 

सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन। 

अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम्‌।।

भावार्थ 

हे अर्जुन, मै समस्त सृष्टियों का आदि, मध्य और अंत हूँ, मै समस्त विद्याओं में अध्यात्म विद्या हूँ और तर्का शास्त्रियों में मै निर्णायक सत्य हूँ।

अध्याय-१० श्लोक=३३

अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च। 

अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः।।

भावार्थ 

हे अर्जुन, अक्षरों में मै अकार हूँ और समासों में द्वन्द्व समास हूँ, मै शाश्वत काल भी हूँ और स्रष्टाओं में ब्रह्मा हूँ।

अध्याय-१० श्लोक=३४

मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम्‌। 

कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा।। 

भावार्थ 

हे पार्थ, मै सर्वभक्षी मृत्यु हूँ और मै ही आगे होने वालों को उत्पन्न करने वाला हूँ, स्त्रियों में मै कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेघा, घृति तथा क्षमा हूँ।

 .अध्याय-१० श्लोक=३५ 

वृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम्‌।  

मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः।।

भावार्थ 

हे धनन्जय, मै सामवेद के गीतों में वृहत्साम हूँ और छंदों में गायत्री हूँ, समस्त महीनों में मै मार्गशीर्ष (अगहन) तथा समस्त ऋतुओं में फूल खिलाने वाली वसंत ऋतू हूँ।

अध्याय-१० श्लोक=३६ 

द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्‌।

जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्ववतामहम्‌।।

भावार्थ 

हे कुन्तीपुत्र, मै छलियों में जुआ हूँ और तेजस्वियों में तेज हूँ, मै विजय हूँ, साहस हूँ और बलवानों का बल भी हूँ।

अध्याय-१० श्लोक=३७ 

वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जयः। 

मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः।। 

भावार्थ 

 हे अर्जुन, मै वृष्णिवंशियों में वासुदेव और पांडवों में अर्जुन हूँ, मै समस्त मुनियों में व्यास तथा महान विचारकों में उशना हूँ।

अध्याय-१० श्लोक=३८

दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम्‌।

मौनं चैवास्मि गुह्मानां ज्ञानं ज्ञानवतामहातम्‌।।

भावार्थ 

हे पार्थ, अराजकता को दमन करने वाले समस्त साधनो में से मै दण्ड हूँ और जो विजय के आकांक्षी हैं उनकी मै नीति हूँ, रहस्यों में मै मौन हूँ और बुद्धिमानों में ज्ञान हूँ।

अध्याय-१० श्लोक=३९

यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन। 

न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्‌।।

भावार्थ 

यही नहीं – हे अर्जुन, मै समस्त सृष्टि का जनक बीज हूँ, ऐसा चर तथा अचर कोई भी प्राणी नहीं है, जो मेरे बिना रह सके।

अध्याय-१० श्लोक=४० 

नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परन्तप। 

एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया।। 

भावार्थ 

हे परन्तप, मेरी दैवी विभूतियों का अंत नहीं है, मैंने तुमसे जो कहा, वह तो मेरी अनन्त विभूतियों का संकेत मात्र है।

अध्याय-१० श्लोक=४१ 

यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा। 

तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेर्जोऽशसंभवम्‌।।

भावार्थ 

हे धनञ्जय, तुम जान लो कि सारा ऐश्वर्य, सौंदर्य तथा तेजस्वी सृष्टियाँ मेरे तेज के एक स्फुलिंग मात्र से उद्भूत हैं।

अध्याय-१० श्लोक=४२ 

अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन। 

विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशें स्थितो जगत्‌।।

भावार्थ 

किन्तु हे अर्जुन, इस सारे विशद ज्ञान की आवश्यकता क्या है, मै तो अपने एक अंश मात्र से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त होकर इसको धारण करता हूँ।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञान विभूतियोगो नाम दशमोऽध्यायः
समाप्त।

इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद्भगवद्गीता के श्री कृष्ण-अर्जुन संवाद में विभूति योग नाम का दसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ।

।। हरिः ॐ तत् सत्।।

गीता अध्याय-१० विभूति योग || Operation Gita

सारांश

दोस्तों, गीता अध्याय-१० विभूति योग के नाम से जाना जाता है जिसमें भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को बताया है कि संसार में जितने भी देवी-देवता हैं वे सब उन्हीं के रूप हैं, इंसान चाहे जिस भी देवता को पूजे वे सभी भगवान  विष्णु के ही रूप हैं,  मनुष्यों में जो सभी गुण और अवगुण हैं वे सब भगवान के शक्ति के ही रूप हैं।

भगवान श्री कृष्ण अपने बारे में अर्जुन से और क्या बताते हैं….? आइये जानते हैं…..

श्री भगवान ने कहा – हे महाबाहु अर्जुन, आगे और सुनो, चूँकि तुम मेरे प्रिय सखा हो, अतः मै तुम्हारे लाभ के लिए ऐसा ज्ञान प्रदान करूँगा, जो अभी तक मेरे द्वारा बताये गए ज्ञान से श्रेष्ठ होगा। हे पार्थ, न तो देवतागण मेरी उत्पत्ति या ऐश्वर्य को जानते हैं और  महर्षिगण ही जानते हैं, क्योंकि मै सभी प्रकार से देवताओं और महर्षियों का भी कारण स्वरुप (उद्गम) हूँ।

हे कुन्तीपुत्र, जो मुझे अजन्मा, अनादि, समस्त लोकों के स्वामी के रूप में जनता है, मनुष्यों में केवल वही मोहरहित और समस्त पापों से मुक्त होता है। हे धनञ्जय, बुद्धि, ज्ञान, संशय तथा मोह से मुक्ति, क्षमाभाव, सत्यता, इन्द्रियनिग्रह, मननिग्रह, सुख तथा दुःख, जन्म, मृत्यु, भय, अभय, अहिंसा, समता, तुष्टि, तप, दान, यश तथा अपयश-जीवों के ये विशेष गुण मेरे ही द्वारा उत्पन्न हैं।

हे अर्जुन, सप्तर्षिगण तथा उनसे भी पूर्व चार अन्य महर्षि एवं सारे मनु (मानवजाति के पूर्वज) सब मेरे मन से उत्पन्न हैं और विभिन्न लोकों में निवास करने वाले सारे जीव उनसे अवतरित होते हैं। हे महाबाहो, जो मेरे इस ऐश्वर्य तथा योग से पूर्णतया आश्वस्त है, वह मेरी अनन्य भक्ति में तत्पर होता है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।

हे पार्थ, मै समस्त आध्यात्मिक तथा भौतिक जगतों का कारण हूँ, प्रत्येक वस्तु मुझसे ही उद्भूत है, जो बुद्धिमान यह भलीभांति जानते हैं, वे मेरी प्रेमभक्ति में लगते हैं तथा ह्रदय से पूरी तरह मेरी पूजा में तत्पर होते हैं।

 

हे अर्जुन, मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमे वाश करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बात करते हुए परम संतोष तथा आनंद का अनुभव करते हैं। हे पार्थ, जो प्रेम पूर्वक मेरी सेवा करने में निरंतर लगे रहते हैं, उन्हें मै ज्ञान प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं।

हे अर्जुन, मै उन पर विशेष कृपा करने के हेतु उनके हृदयों में वाश करते हुए ज्ञान के प्रकाशमान दीपक के द्वारा अज्ञानजन्य अंधकार को दूर करता हूँ।

श्री कृष्ण की बात सुनकर अर्जुन ने कहा…..

हे मधुसूदन, आप परम भगवान, परमधाम, परमपवित्र, परम सत्य हैं, आप नित्य, दिव्य, आदि  पुरुष, अजन्मा तथा महानतम हैं, नारद, असित, देवल तथा व्यास जैसे ऋषि आपके इस सत्य की पुष्टि करते हैं और अब आप स्वयं भी मुझसे प्रकट कर रहे हैं।

हे कृष्ण, आपने मुझसे जो कुछ कहा है, उसे मै पूर्णतया सत्य मानता हूँ। हे प्रभु, न तो देवतागण, न असुरगण ही आपके स्वरुप को समझ सकते हैं। हे परमपुरुष, हे सबके उद्गम, हे समस्त प्राणियों के स्वामी, हे देवों के देव, हे ब्रह्माण्ड के प्रभु, निस्संदेह एक मात्र आप ही अपने को अपनी अन्तरंगाशक्ति से जानने वाले हैं।

हे केशव, कृपा करके विस्तारपूर्वक मुझे अपने उन दैवी ऐश्वर्यों को बतायें, जिनके द्वारा आप इन समस्त लोकों में हैं। हे कृष्ण, हे परम योगी, मै किस तरह आपका निरंतर चिंतन करूँ और आपको कैसे जानूं ? हे भगवान, आपका स्मरण किन-किन रूपों में किया जाय ?

हे जनार्दन, आप पुनः विस्तार से अपने ऐश्वर्य तथा योगशक्ति वर्णन करें, मै आपके विषय में सुनकर कभी तृप्त नहीं होता हूँ, क्योंकि जितना ही आपके विषय में सुनता हूँ, उतना ही आपके शब्द-अमृत को चखना चाहता हूँ।

 

अर्जुन की बात सुनकर भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा….. 

हे अर्जुन, अब मै तुमसे अपने मुख्य-मुख्य वैभवयुक्त रूपों का वर्णन करूँगा, क्योंकि हे अर्जुन, मेरा ऐश्वर्य असीम है। हे अर्जुन, मै समस्त जीवों के हृदयों में स्थित परमात्मा हूँ, मै ही समस्त जीवों का आदि, मध्य तथा अंत हूँ। हे पार्थ, मै आदित्यों में विष्णु, प्रकाशों में तेजस्वी सूर्य, मरुतों में मरुचि तथा नक्षत्रों में चन्द्रमा हूँ।

हे धनञ्जय, मै वेदों में सामदेव हूँ, देवों में स्वर्ग का राजा इंद्र हूँ, इन्द्रियों में मन हूँ, तथा समस्त जीवों में जीवनशक्ति अर्थात चेतना हूँ। हे अर्जुन, मै समस्त रुद्रों में शिव हूँ, यक्षों तथा राक्षसों में संपत्ति का देवता (कुबेर) हूँ, वसुओं में अग्नि हूँ और समस्त पर्वतों में मेरु हूँ।

हे अर्जुन, मुझे समस्त पुरोहितों में मुख्य पुरोहित वृहस्पति जानो, मै ही समस्त सेनानायकों में कार्तिकेय हूँ और समस्त जलाशयों में समुद्र हूँ।हे पार्थ, मै महर्षियों में भृगु हूँ, वाणी में दिव्य ओंकार हूँ, समस्त यज्ञों में पवित्र नाम का कीर्तन (जप) तथा समस्त अंचलों में हिमाचल हूँ।

 

हे कुन्तीपुत्र, मै समस्त वृक्षों में अश्वत्थ वृक्ष हूँ और देवर्षियों में नारद हूँ, मै गंधर्वों में चित्ररथ हूँ और सिद्ध पुरूषों में कपिल मुनि हूँ। हे धनञ्जय, घोड़ो में मुझे उच्चैः श्रवा जानो, अमृत के लिए समुद्र मंथन के समय उत्पन्न हुआ था, गजराजों में मै ऐरावत हूँ तथा मनुष्यों में राजा हूँ।

हे  अर्जुन, मै हथियारों में वज्र हूँ, गायों में सुरभि, संतति उत्पत्ति के कारणों में प्रेम का देवता कामदेव तथा सर्पों में वासुकि हूँ। हे  महाबाहो, अनेक फणों वाले नागों में मै अनन्त हूँ और जलचरों में वरुणदेव  हूँ, मै पितरों में अर्यमा हूँ तथा नियमों के निर्वाहकों में मै मृत्युराज यम हूँ।

हे  पार्थ, दैत्यों में मै दैत्यराज प्रह्लाद हूँ, दमन करने वालों में काल हूँ, पशुओं  में सिंह हूँ तथा पक्षियों में गरुण मै ही हूँ।हे अर्जुन, समस्त पवित्र करने वालों में मै वायु हूँ, शस्त्रधारियों में राम, मछलियों में मगर तथा नदियों में गंगा मै ही हूँ।

हे अर्जुन, मै समस्त सृष्टियों का आदि, मध्य और अंत हूँ, मै समस्त विद्याओं में अध्यात्म विद्या हूँ और तर्का शास्त्रियों में मै निर्णायक सत्य हूँ, हे अर्जुन, अक्षरों में मै अकार हूँ और समासों में द्वन्द्व समास हूँ, मै शाश्वत काल भी हूँ और स्रष्टाओं में ब्रह्मा हूँ। हे पार्थ, मै सर्वभक्षी मृत्यु हूँ और मै ही आगे होने वालों को उत्पन्न करने वाला हूँ, स्त्रियों में मै कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेघा, घृति तथा क्षमा हूँ।

 

हे धनन्जय, मै सामवेद के गीतों में वृहत्साम हूँ और छंदों में गायत्री हूँ, समस्त महीनों में मै मार्गशीर्ष (अगहन) तथा समस्त ऋतुओं में फूल खिलाने वाली वसंत ऋतू हूँ, हे कुन्तीपुत्र, मै छलियों में जुआ हूँ और तेजस्वियों में तेज हूँ, मै विजय हूँ, साहस हूँ और बलवानों का बल भी हूँ।

 हे अर्जुन, मै वृष्णिवंशियों में वासुदेव और पांडवों में अर्जुन हूँ, मै समस्त मुनियों में व्यास तथा महान विचारकों में उशना हूँ, आकांक्षी हैं उनकी मै नीति हूँ, रहस्यों में मै मौन हूँ और बुद्धिमानों में ज्ञान हूँ। यही नहीं – हे अर्जुन, मै समस्त सृष्टि का जनक बीज हूँ, ऐसा चर तथा अचर कोई भी प्राणी नहीं है, जो मेरे बिना रह सके।

हे परन्तप, मेरी दैवी विभूतियों का अंत नहीं है, मैंने तुमसे जो कहा, वह तो मेरी अनन्त विभूतियों का संकेत मात्र है। हे धनञ्जय, तुम जान लो कि सारा ऐश्वर्य, सौंदर्य तथा तेजस्वी सृष्टियाँ मेरे तेज के एक स्फुलिंग मात्र से उद्भूत हैं। किन्तु हे अर्जुन, इस सारे विशद ज्ञान की आवश्यकता क्या है, मै तो अपने एक अंश मात्र से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त होकर इसको धारण करता हूँ।

दोस्तों, आशा करता हूँ कि यह आर्टिकल गीता अध्याय-१० विभूति योग || Operation Gita आपके ज्ञान के भंडार को पहले से और बेहतर बनायेगा साथ ही आपको बुद्धजीवियों की श्रेणी में लेकर जायेगा, तो आज के लिए सिर्फ इतना ही, अगले आर्टिकल में हम फिर मिलेंगे, किसी नए टॉपिक के साथ, तब तक के लिए, जय हिन्द-जय भारत

लेखक परिचय

इस वेबसाइट के संस्थापक अमित दुबे हैं, जो दिल्ली में रहते हैं, एक Youtuber & Blogger हैं, किताबें पढ़ने और जानकारियों को अर्जित करके लोगों के साथ शेयर करने के शौक के कारण सोशल मीडिया के क्षेत्र में आये हैं और एक वेबसाइट तथा दो Youtube चैनल के माध्यम से लोगों को Motivate करने तथा ज्ञान का प्रसार करने का काम कर रहे हैं।

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