गीता अध्याय-११ विश्वरूप दर्शन योग || Operation Gita

दोस्तों, गीता अध्याय-१० विभूति योग के अंत में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को बताया था कि हे परन्तप, मेरी दैवी विभूतियों का अंत नहीं है, मैंने तुमसे जो कहा, वह तो मेरी अनन्त विभूतियों का संकेत मात्र है। हे धनञ्जय, तुम जान लो कि सारा ऐश्वर्य, सौंदर्य तथा तेजस्वी सृष्टियाँ मेरे तेज के एक स्फुलिंग मात्र से उद्भूत हैं। किन्तु हे अर्जुन, इस सारे विशद ज्ञान की आवश्यकता क्या है, मै तो अपने एक अंश मात्र से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त होकर इसको धारण करता हूँ। इससे आगे गीता अध्याय-११ विश्वरूप दर्शन योग || Operation Gita में श्री कृष्ण अर्जुन से क्या कहते हैं, आइये जानते हैं इस आर्टिकल के माध्यम से।

गीता अध्याय-११ विश्वरूप दर्शन योग || Operation Gita
गीता अध्याय-११ विश्वरूप दर्शन योग || Operation Gita

गीता अध्याय-११ विश्वरूप दर्शन योग || Operation Gita

अर्जुन उवाच

अध्याय-११ श्लोक=१

मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसंज्ञितम्‌। 

यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम।। 

भावार्थ 

अर्जुन ने श्री कृष्ण से कहा – हे केशव, अपने जिन अत्यंत गुह्य आध्यात्मिक विषयों का मुझे उपदेश दिया है, उसे सुनकर अब मेरा मोह दूर हो गया है।

अध्याय-११ श्लोक=२ 

भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ मया। 

त्वत्तः कमलपत्रास महात्म्यमपि चाव्ययम्‌।।

भावार्थ 

हे कमलनयन, मैंने आपसे प्रत्येक जीव की उत्पत्ति तथा लय के विषय में विस्तार से सुना है और आपकी अक्षय महिमा का अनुभव किया है।

अध्याय-११ श्लोक=३ 

एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर। 

द्रष्टमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम।। 

भावार्थ 

हे पुरुषोत्तम – हे परमेश्वर, यद्यपि आपको मै अपने समक्ष आपके द्वारा वर्णित आपके वास्तविक रूप में देख रहा हूँ, किन्तु मै यह देखने का इच्छुक हूँ कि आप इस दृश्य जगत में किस प्रकार प्रविष्ट हुए हैं, मै आपके उसी रूप का दर्शन करना चाहता हूँ।

अध्याय-११ श्लोक=४ 

मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो। 

योगेश्वर ततो में त्वं दर्शयात्मानमव्ययम्‌।। 

भावार्थ 

हे प्रभु – हे योगेश्वर, यदि आप सोचते हैं कि मै आपके विश्वरूप को देखने में समर्थ हो सकता हूँ, तो कृपा करके मुझे अपना विश्वरूप दिखलाइये।

भगवानुवाच

अध्याय-११ श्लोक=५ 

पश्य में पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः। 

नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतिनि च।। 

भावार्थ 

भगवान श्री कृष्ण ने कहा – हे अर्जुन – हे पार्थ, अब तुम मेरे ऐश्वर्य को, सैकड़ों-हजारों प्रकार के दैवी तथा विविध रंगो वाले रूपों को देखो।

अध्याय-११ श्लोक=६ 

पश्यादित्यान्वसुन्रुद्रानश्विनौ मरुतस्तथा। 

बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्चर्याणि भारत।।

भावार्थ 

हे भारत, लो तुम आदित्यों, वसुओं, रुद्रों, अश्विनीकुमारों तथा अन्य देवताओं के विभिन्न रूपों को यहाँ देखो, तुम ऐसे अनेक आश्चर्यमय रूपों को देखो, जिन्हें पहले किसी ने न तो कभी देखा है, न सुना है।

अध्याय-११ श्लोक=७ 

इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम्‌।

मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद् द्रष्टुमिच्छसि।। 

भावार्थ 

हे अर्जुन, तुम जो भी देखना चाहो, उसे तत्क्षण मेरे इस शरीर में देखो, तुम इस समय तथा भविष्य में भी जो भी देखना चाहते हो, उसको यह विश्वरूप दिखाने वाला है, यहाँ एक ही स्थान पर चर-अचर सब कुछ है।

अध्याय-११ श्लोक=८ 

न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा। 

दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमेश्वरम्‌।।

भावार्थ 

हे पार्थ, किन्तु तुम मुझे अपनी इन आँखों से नहीं देख सकते, अतः मै तुम्हें दिव्य ऑंखें प्रदान कर रहा हूँ, अब तुम मेरे योग ऐश्वर्य को देखो।

संजय उवाच

अध्याय-११ श्लोक=९

एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्वरो हरिः। 

दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम्‌।।

भावार्थ 

संजय ने धृतराष्ट्र से कहा – हे राजन, इस प्रकार कहकर महायोगेश्वर भगवान ने अर्जुन को अपना विश्वरूप दिखलाया।

अध्याय-११ श्लोक=१० और ११ 

अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम्‌।

अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम्‌।।

दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगंधानुलेपनम्‌।

सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम्‌।।

भावार्थ 

अर्जुन ने उस विश्वरूप में असंख्य मुख, असंख्य नेत्र तथा असंख्य आश्चर्यमय दृश्य देखे, यह रूप अनेक दैवी आभूषणों से अलंकृत था और अनेक दैवी हथियार उठाये हुए था, यह दैवी मालाएं तथा वस्त्र धारण किये था और उस पर अनेक दिव्य सुगंधियाँ लगी थी, सब कुछ आश्चर्यमय, तेजमय, असीम तथा सर्वत्र व्याप्त था।

अध्याय-११ श्लोक=१२ 

दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता। 

यदि भाः सदृसी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः।।

भावार्थ 

यदि आकाश में हजारों सूर्य एक साथ उदय हों, तो उनका प्रकाश शायद परमपुरुष के इस विश्वरूप के तेज की समता कर सके।

अध्याय-११ श्लोक=१३ 

तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा। 

अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा।। 

भावार्थ 

उस समय अर्जुन भगवान के विश्वरूप में एक ही स्थान पर स्थित हजारों भागों में विभक्त ब्रह्माण्ड के अनन्त अंशों को देख सके।

अध्याय-११ श्लोक=१४ 

ततः सविस्मयाविष्टो हष्टरोमा धनञ्जयः। 

प्रणम्य शिरसा देवं कृताञ्जलिरभाषत।। 

भावार्थ 

तब मोहग्रस्त एवं आश्चर्यचकित रोमांचित हुए अर्जुन ने प्रणाम करने के लिए मस्तक झुकाया और वह हाथ जोड़कर भगवान से प्रार्थना करने लगे।

अर्जुन उवाच

अध्याय-११ श्लोक=१५ 

पश्यामि देवांस्तव देव देहे सर्वांस्तथा भूतविशेषसङ्घान्‌। 

ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थमृषिशं सर्वानुरगांश्च दिव्यान्‌।। 

भावार्थ 

अर्जुन ने कहा – हे भगवान श्री कृष्ण, मै आपके शरीर में सारे देवताओं तथा अन्य विविध जीवों को एकत्र देख रहा हूँ, मै कमल पर आसीन ब्रह्मा, शिव जी तथा समस्त ऋषियों एवं दिव्य सर्पों को देख रहा हूँ।

अध्याय-११ श्लोक=१६ 

अनेकबाहुदरवक्त्रनेत्रं पश्यामि त्वां सर्वातोऽनन्तरूपम्‌। 

नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिं पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप।। 

भावार्थ 

हे विश्वेश्वर – हे विश्वरूप, मै आपके शरीर में अनेकानेक हाथ, पेट, मुँह तथा आँखें देख रहा हूँ, जो सर्वत्र फैले हैं और जिनका अंत नहीं है, आपमें न अंत दीखता है, न मध्य और न आदि।

अध्याय-११ श्लोक=१७

किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमंतम्‌।  

पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ता द्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम्‌।।

भावार्थ 

आपके रूप को उसके चकाचौंध तेज के कारण देख पाना कठिन है, क्योंकि वह प्रज्ज्वलित अग्नि की भाँति अथवा सूर्य के अपार प्रकाश की भाँति चारों ओर फ़ैल रहा है, तो भी मै इस तेजोमय रूप को सर्वत्र देख रहा हूँ, जो अनेक मुकुटों, गदाओं तथा चक्रों से विभूषित है।

अध्याय-११ श्लोक=१८ 

त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्‌। 

त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता सनातनस्त्व पुरुषो मतों मे।।

भावार्थ 

आप परम आद्य ज्ञेय वस्तु हैं, आप इस ब्रह्माण्ड के परम आधार हैं, आप अव्यय तथा पुराण पुरुष हैं, आप सनातन धर्म के पालक भगवान हैं, यही मेरा मत है।

अध्याय-११ श्लोक=१९ 

अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्य मनंतबाहुं शशिसूर्यनेत्रम्‌। 

पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रं स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम्‌।।

भावार्थ 

आप आदि, मध्य तथा अंत से रहित हैं, आपका यश अनंत है, आपकी असंख्य भुजाएँ हैं और सूर्य तथा चन्द्रमा आपकी आँखें हैं, मै आपके मुख से प्रज्ज्वलित अग्नि निकलते और आपके तेज से इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को जलते हुए देख रहा हूँ।

अध्याय-११ श्लोक=२० 

द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वाः। 

दृष्टाद्भुतं रूपमुग्रं तवेदं लोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन्‌।।

भावार्थ 

यद्यपि आप एक हैं, किन्तु आप आकाश तथा सारे लोकों एवं उनके बीच के समस्त अवकाश में व्याप्त हैं। हे महापुरुष, आपके इस अद्भुत तथा भयानक रूप को देखकर सारे लोक भयभीत हैं।

अध्याय-११ श्लोक=२१ 

अमी हि त्वां सुरसङ्घा विशन्ति केचिद्भीता प्राञ्जलयो गृणन्ति। 

स्वस्तीत्युक्त्वा महार्षिसिद्भसङ्घा स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभिः।। 

भावार्थ 

देवों का सारा समूह आपकी शरण ले रहा है और आप में प्रवेश कर रहा है, उनमें से कुछ अत्यंत भयभीत होकर हाथ जोड़े आपकी प्रार्थना कर रहे हैं, महर्षियों तथा सिद्धों के समूह “कल्याण हो” कहकर वैदिक स्तोत्रों का पाठ करते हुए आपकी स्तुति कर रहे हैं।

अध्याय-११ श्लोक=२२ 

रुद्रादित्या वसवो ये च साध्या विश्वेऽश्विनौ मरुतश्चोष्मपाश्च। 

गंधर्वयक्षासुरसिद्धसङ्घा वीक्षन्ते त्वां विषमिताश्चैव सर्वे।। 

भावार्थ 

शिव के विविध रूप, आदित्यगण, वसु, साध्य, विश्वेदेव, दोनों अश्विनीकुमार, मरुद्गण, पितृगण, गन्धर्व, यक्ष, असुर तथा सिद्धदेव सभी आपको आश्चर्यपूर्वक देख रहे हैं।

अध्याय-११ श्लोक=२३ 

रूपं महत्ते बहुवक्त्रनेत्रं महाबाहो बहुबाहूरुपादम्‌। 

बहूदरं बहुदंष्ट्राकरालं दृष्ट्रा लोकाः प्रव्यथितास्तथाहम्‌।। 

भावार्थ 

हे महाबाहु, आपके इस अनेक मुख, नेत्र, बाहु, जंघा, पाँव, पेट तथा भयानक दाँतों वाले विराट रूप को देखकर देवतागण सहित सभी लोक अत्यंत विचलित हैं और उन्हीं की तरह मै भी हूँ।

अध्याय-११ श्लोक=२४

नभःस्पृशं दीप्तमनेकवर्ण  व्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम्‌।

दृष्ट्वा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा धृतिं न विन्दामि शर्म च विष्णो।। 

भावार्थ 

हे सर्वव्यापी विष्णु, नाना ज्योतिर्मय रंगों से युक्त आपको आकाश का स्पर्श करते, मुख फैलाये तथा बड़ी-बड़ी चमकती आँखें निकाले देखकर भय से मेरा मन विचलित है, मै न तो धैर्य धारण कर पा रहा हूँ और न ही मानसिक संतुलन ही पा रहा हूँ।

अध्याय-११ श्लोक=२५ 

दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि दृष्ट्वैव कालानलसन्निभानि। 

दिशो न जाने न लभे च शर्म प्रसीद देवेश जगन्निवास।। 

भावार्थ 

हे देवेश – हे जगन्निवास, आप मुझ पर प्रसन्न हो, मै इस प्रकार से आपके प्रलयाग्नि स्वरुप मुखों को तथा विकराल दाँतों को देखकर अपना संतुलन नहीं रख पा रहा, मै सब ओर से मोहग्रस्त हो रहा हूँ।

अध्याय-११ श्लोक=२६-२७ 

अमी च त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्राः सर्वे सहैवावनिपालसङ्घैः। 

भीष्मो द्रोणः सूतपुत्रस्तथासौ सहास्मदीयैरपि योधमुख्यैः।। 

वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशन्ति दंष्ट्राकरालानी भयानकानि। 

केचिद्विलग्ना दशनान्तरेषु सन्दृश्यन्ते चूर्णितैरुत्तमाङ्‍गै।। 

 भावार्थ 

धृतराष्ट्र के सारे पुत्र अपने समस्त सहायक राजाओं सहित तथा भीष्म, द्रोण, कर्ण एवं हमारे प्रमुख योद्धा भी आपके विकराल मुख में प्रवेश कर रहे हैं, उनमें से कुछ के शिरों को तो मै आपके दाँतों के बीच चूर्णित हुआ देख रहा हूँ।

अध्याय-११ श्लोक=२८ 

यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति। 

तथा तवामी नरलोकवीरा विशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति।।

भावार्थ 

जिस प्रकार नदियों की अनेक तरंगे समुद्र में प्रवेश करती हैं, उसी प्रकार ये समस्त महान योद्धा भी आपके प्रज्ज्वलित मुखों में प्रवेश कर रहे हैं।

अध्याय-११ श्लोक=२९ 

यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतङ्गा विशन्ति नाशाय समृद्धवेगाः। 

तथैव नाशाय विशन्ति लोकास्तवापि वक्त्राणि समृद्धवेगाः।।

भावार्थ 

मै समस्त लोगों को पूर्ण वेग से आपके मुख में उसी प्रकार प्रविष्ट होते देख रहा हूँ, जिस प्रकार पतिंगे अपने विनाश के लिए प्रज्ज्वलित अग्नि में कूद पड़ते हैं।

अध्याय-११ श्लोक=३० 

लेलिह्मसे ग्रसमानः समन्ताल्लोकान्समग्रान्वदनैर्ज्वलद्भिः। 

तेजोभिरापूर्व जगत्समग्रं भासस्तवोग्राः प्रतपन्ति विष्णो।। 

भावार्थ 

हे विष्णु, मै देखता हूँ कि आप अपने प्रज्ज्वलित मुखों से सभी दिशाओं के लोगों को निगले जा रहे हैं, आप सारे ब्रह्माण्ड को अपने तेज से आपूरित करके अपनी विकराल झुलसाती किरणों सहित प्रकट हो रहे हैं।

अध्याय-११ श्लो क=३१ 

आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद। 

विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यं न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम्‌।। 

भावार्थ 

हे देवेश, कृपा करके मुझे बतलाइये कि इतने उग्र रूप में आप कौन हैं, मै आपको नमस्कार करता हूँ, कृपा करके मुझ पर प्रसन्न हों, आप आदि भगवान हैं, मै आपको जानना चाहता हूँ, क्योंकि मै नहीं जान पा रहा हूँ कि आपका प्रयोजन क्या है।

श्री भगवानुवाच

अध्याय-११ श्लोक=३२ 

कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः। 

ऋतेऽपि त्वां न भविष्यति सर्वे येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः।। 

भावार्थ 

भगवान श्री कृष्ण ने कहा – हे अर्जुन, समस्त जगतों को विनष्ट करने वाला काल मै हूँ और मै यहाँ समस्त लोगों का विनाश करने के लिए आया हूँ, तुम्हारे (पाण्डवों के) सिवा दोनों पक्षों के सारे योद्धा मारे जायेंगे।

अध्याय-११ श्लोक=३३

तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून्भुङ्‍क्ष्व राज्यं समृद्धम्‌।

मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्‌।।

भावार्थ 

अतः उठो, लड़ने के लिए तैयार होवो और यश अर्जित करो, अपने शत्रुओं को जीतकर संपन्न राज्य का भोग करो, ये सब मेरे द्वारा पहले ही मारे जा चुके हैं और हे सव्यसाची तुम तो युद्ध में केवल निमित्त मात्र हो।

अध्याय-११ श्लोक=३४ 

द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च कर्णं तथान्यानपि योधवीरान्‌। 

मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठा युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान्‌।।

भावार्थ 

हे अर्जुन – द्रोण, भीष्म, जयद्रथ, कर्ण तथा अन्य महान योद्धा पहले ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं, अतः तुम उनका वध करो और तनिक भी विचलित न होवो, तुम  केवल युद्ध करो, युद्ध में  शत्रुओं को परास्त करोगे।

संजय उवाच

अध्याय-११ श्लोक=३५ 

एतच्छुत्वा वचनं केशवस्य कृताञ्जलिर्वेपमानः किरीटी। 

नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णं सगद्नदं भीतभीतः प्रणम्य।। 

भावार्थ 

संजय ने धृतराष्ट्र से कहा – हे राजन, भगवान के मुख से इन वचनों को सुनकर काँपते हुए अर्जुन ने हाथ जोड़कर उन्हें बारम्बार नमस्कार किया, फिर उसने भयभीत होकर अवरुद्ध स्वर में श्री कृष्ण से इस प्रकार कहा।

अर्जुन उवाच

अध्याय-११ श्लोक=३६ 

स्थाने ऋषिकेश तव प्रकीर्त्या जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च। 

रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसङ्घा।। 

भावार्थ 

अर्जुन ने कहा – हे ऋषिकेश, आपके नाम के श्रवण से संसार हर्षित होता है और सभी लोग आपके प्रति अनुरक्त होते हैं, यद्यपि सिद्ध पुरुष आपको नमस्कार करते हैं, किन्तु असुरगण भयभीत हैं और इधर-उधर भाग रहे हैं, यह ठीक ही हुआ है।

अध्याय-११ श्लोक=३७ 

कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन्‌ गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकन्नें। 

अनन्त देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत्‌।।

भावार्थ 

 हे महात्मा, आप ब्रह्मा से भी बढ़कर हैं, आप आदि स्रष्टा हैं, तो फिर वे आपको सादर नमस्कार क्यों ना करें, हे अनन्त, हे देवेश, हे जगन्नाथ, आप परम स्रोत, अक्षर, कारणों के कारण तथा इस भौतिक जगत से परे हैं।

अध्याय-११ श्लोक=३८

त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणस्त्वमस्य विश्वस्यपरं निधानम्‌। 

वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप।। 

भावार्थ 

हे वासुदेव, आप आदि देव, सनातन पुरुष तथा इस दृश्य जगत के परम आश्रय हैं, आप सब कुछ जानने वाले हैं और आप ही वह सब कुछ हैं, जो जानने योग्य है, आप भौतिक गुणों से परे परम आश्रय हैं, हे अनन्त रूप यह सम्पूर्ण दृश्य जगत आपसे व्याप्त है।

अध्याय-११ श्लोक=३९ 

वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च। 

नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते।। 

भावार्थ 

हे जगतगुरु, आप वायु हैं तथा परम नियन्ता भी हैं, आप अग्नि हैं, जल हैं तथा चन्द्रमा हैं, आप आदि जीव ब्रह्मा हैं  प्रपितामह हैं, अतः आपको हजार बार नमस्कार है और पुनः-पुनः नमस्कार है।

अध्याय-११ श्लोक=४०

नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व। 

अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्व समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः।।

भावार्थ 

हे विश्वरूप, आपको आगे-पीछे तथा चारों ओर से नमस्कार है। हे असीम शक्ति, आप अनन्त पराक्रम के स्वामी हैं, आप सर्वव्यापी हैं, अतः आप सब कुछ हैं।

अध्याय-११ श्लोक=४१-४२

सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति। 

अजानता महिमानं तवेदं मया प्रमादात्प्रणयेन वापि।।

यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि विहारशय्यासनभोजनेषु। 

एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं तत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम्‌।। 

भावार्थ 

हे केशव, आपको अपना मित्र मानते हुए मैंने हठपूर्वक आपको हे कृष्ण, हे यादव, हे सखा जैसे सम्बोधनों से पुकारा है, क्योंकि मै आपकी महिमा को नहीं जनता था, मैंने मूर्खतावश या प्रेमवश जो कुछ भी किया है, कृपया उसके लिए मुझे क्षमा कर दें, यही नहीं मैंने कई बार आराम करते समय, एक साथ लेटे हुए या साथ-साथ खाते या बैठे हुए, कभी अकेले तो कभी अनेक मित्रों के समक्ष आपका अनादर किया है। हे अच्युत, मेरे इन समस्त अपराधों को क्षमा करें।

अध्याय-११ श्लोक=४३ 

पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान्‌।

न त्वत्समोऽस्त्यभ्यदिकः कुतोऽन्यो लोकन्नयेऽप्यप्रतिमप्रभाव।।  

भावार्थ 

हे देवकीनंदन, आप इस चर तथा अचर सम्पूर्ण दृश्यजगत के जनक हैं, आप परम पूज्य महान आध्यात्मिक गुरु हैं, न तो कोई आपके तुल्य है और न ही कोई आपके समान हो सकता है। हे अतुल शक्ति वाले प्रभु, भला तीनों लोकों में आपसे बढ़कर कोई कैसे हो सकता है।

अध्याय-११ श्लोक=४४ 

तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं प्रसादये त्वामहमीशमीड्यम्‌।

पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम्‌।।

.भावार्थ 

हे भगवान श्री कृष्ण, आप प्रत्येक जीव द्वारा पूजनीय भगवान हैं, अतः मै आपको गिरकर सादर प्रणाम करता हूँ और आपकी कृपा की याचना करता हूँ, जिस प्रकार पिता अपने पुत्र की ढिठाई सहन करता है, या मित्र अपने मित्र की घृष्टता सह लेता है, या प्रिय अपनी प्रिया का अपराध सहन कर लेता है, ठीक उसी प्रकार आप कृपा करके मेरी त्रुटियों को सहन कर लें।

अध्याय-११ श्लोक=४५

अदृष्टपूर्व हषितोऽस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे। 

तदेव मे दर्शय देव रूपं प्रसीद देवेश जगन्निवास।। 

भावार्थ 

हे जगत के स्वामी, पहले कभी न देखे गए आपके इस विराट रूप का दर्शन करके मै पुलकित हो रहा हूँ, किन्तु साथ ही मेरा मन भयभीत हो रहा है, अतः आप मुझ पर कृपा करें और हे देवेश, हे जगन्निवास, अपना पुरुषोत्तम भगवत स्वरुप पुनः दिखाएँ।

अध्याय-११ श्लोक=४६ 

किरीटिनं गदिनं चक्रहस्तमिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव। 

तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन सहस्रबाहो भव विश्वमूर्ते।। 

भावार्थ 

हे विराट रूप – हे सहस्रभुज भगवान, मै आपके मुकुटधारी चतुर्भुज रूप का दर्शन करना चाहता हूँ, जिसमें आप अपने चारो हाथों में शंख, चक्र, गदा तथा पद्म धारण किये हुए हों, मै आपके उसी रूप को देखने की इच्छा करता हूँ।

भगवानुवाच

अध्याय-११ श्लोक=४७

मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं रूपं परं दर्शितमात्मयोगात्‌। 

तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यं यन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम्‌।। 

भावार्थ 

भगवान श्री कृष्ण ने कहा – हे अर्जुन, मैंने प्रसन्न होकर अपनी अन्तरंगा शक्ति के बल पर तुम्हें इस संसार में अपने इस परम विश्वरूप का दर्शन कराया है, इसके पूर्व अन्य किसी ने इस असीम तथा तेजोमय आदि रूप को कभी नहीं देखा है।

अध्याय-११ श्लोक=४८ 

न वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानैर्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रैः। 

एवंरूपः शक्य अहं नृलोके द्रष्टुं त्वदन्येन कुरुप्रवीर।।  

भावार्थ 

हे कुरुश्रेष्ठ, तुमसे पूर्व मेरे इस विश्वरूप को किसी ने नहीं देखा, क्योंकि मै न तो वेदाध्ययन के द्वारा, न यज्ञ, दान, पुण्य या कठिन तपस्या के द्वारा इस रूप में, देखा जा सकता हूँ।

अध्याय-११ श्लोक=४९

मा ते व्यथा मा च विमूढ़भावो दृष्ट्वा रूपं  घोरमीदृङ्‍ममेदम्‌।

व्यपेतभीः प्रीतमनाः पुनस्त्वं तदेव मे रूपमिदं प्रपश्य।।

भावार्थ 

हे पार्थ, तुम मेरे इस भयानक रूप को देखकर अत्यन्त विचलित एवं मोहित हो गए हो, अब इसे समाप्त करता हूँ। हे मेरे भक्त, तुम समस्त चिंताओं से पुनः मुक्त हो जाओ, तुम शांत चित्त से अब अपना इच्छित रूप देख सकते

संजय उवाच

अध्याय-११ श्लोक=५० 

इत्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्त्वा स्वकं रूपं दर्शयामास भूयः। 

आश्वासयामास च भीतमेनं भूत्वा पुनः सौम्यवपुर्महात्मा।। 

भावार्थ 

संजय ने धृतराष्ट्र से कहा – अर्जुन से इस प्रकार कहने के बाद भगवान श्री कृष्ण ने अपना असली चतुर्भुज रूप प्रकट किया और अंत में दो भुजाओं वाला अपना रूप प्रदर्शित करके भयभीत अर्जुन को धैर्य बँधाया।

अर्जुन उवाच

अध्याय-११ श्लोक=५१ 

दृष्ट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन। 

इदानीमस्मि संवृत्तः सचेताः प्रकृतिं गतः।।

भावार्थ 

जब अर्जुन ने श्री कृष्ण को उनके आदि रूप में देखा तो कहा – हे जनार्दन, आपके इस अतीव सुन्दर मानवी रूप को देखकर मै अब स्थिरचित्त हूँ और मैंने अपनी प्राकृत अवस्था प्राप्त कर ली है।

श्री भगवानुवाच

अध्याय-११ श्लोक=५२ 

सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम। 

देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः।।

भावार्थ 

श्री भगवान ने कहा – हे अर्जुन, तुम मेरे जिस रूप को इस समय देख रहे हो, उसे देख पाना अत्यन्त दुष्कर है, यहाँ तक कि देवता भी इस अत्यन्त प्रिय रूप को देखने की ताक में रहते हैं।

अध्याय-११ श्लोक=५३ 

नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया। 

शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा।।

भावार्थ 

हे धनञ्जय, तुम अपने दिव्य नेत्रों से जिस रूप का दर्शन कर रहे हो, उसे न तो वेदाध्ययन से, न कठिन तपस्या से, न दान से, न पूजा से ही जाना जा सकता है, कोई इन साधनों के द्वारा मुझे मेरे रूप में नहीं देख सकता।

अध्याय-११ श्लोक=५४ 

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन।

ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप।।  

भावार्थ 

हे अर्जुन, केवल अनन्य भक्ति द्वारा मुझे उस रूप में समझा जा सकता है, जिस रूप में मै तुम्हारे समक्ष खड़ा हूँ और इसी प्रकार मेरा साक्षात् दर्शन भी किया जा सकता है, केवल इसी विधि से तुम मेरे ज्ञान के रहस्य को पा सकते हो।

अध्याय-११ श्लोक=५५ 

मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः। 

निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव।। 

भावार्थ 

हे अर्जुन, जो व्यक्ति सकाम कर्मों तथा मनोधर्म के कल्मष से मुक्त होकर, मेरी शुद्ध भक्ति में तत्पर रहता है, जो मेरे लिए ही कर्म करता है, जो मुझे ही जीवन लक्ष्य समझता है और जो प्रत्येक जीव से मैत्रीभाव रखता है, वह निश्चय ही मुझे प्राप्त करता है।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे विश्वरूपदर्शनयोगो नामैकादशोऽध्यायः
समाप्त।

इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद्भगवद्गीता के श्री कृष्ण-अर्जुन संवाद में विश्वरूप दर्शन योग नाम का ग्यारहवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ।

।। हरिः ॐ तत् सत्।।

गीता अध्याय-११ विश्वरूप दर्शन योग || Operation Gita

सारांश 

दोस्तों, गीता अध्याय-१० विभूतियोग में भगवान श्री कृष्ण ने जब अर्जुन को अपने बारे में बहुत कुछ बताया तो अर्जुन के मन में एक जिज्ञासा पनपी और वह जिज्ञासा थी भगवान के विश्वरूप को देखने की, अर्जुन की जिज्ञासा को पूरा करने के लिए भगवान श्री कृष्ण ने गीता अध्याय-११ विश्वरूप दर्शन योग में अर्जुन को दिव्य दृष्टि देकर अपना साक्षात् दर्शन कराया।

जब भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को विश्वरूप का दर्शन करा रहे थे तो सभी देवी-देवता भी उस रूप का दर्शन कर रहे थे, क्योंकि वह क्षण कोई मामूली क्षण नहीं था, उस क्षण में साक्षात् जगत के स्वामी, भगवान नारायण अपना असली रूप दिखा रहे थे, आइये हम सभी इस अध्याय के माध्यम से खुद को अर्जुन मानते हुए अपने इष्ट भगवान श्री हरि नारायण अर्थात विष्णु भगवान का दर्शन करते हैं।

अर्जुन ने श्री कृष्ण से कहा – हे केशव, अपने जिन अत्यंत गुह्य आध्यात्मिक विषयों का मुझे उपदेश दिया है, उसे सुनकर अब मेरा मोह दूर हो गया है। हे कमलनयन, मैंने आपसे प्रत्येक जीव की उत्पत्ति तथा लय के विषय में विस्तार से सुना है और आपकी अक्षय महिमा का अनुभव किया है।

हे पुरुषोत्तम – हे परमेश्वर, यद्यपि आपको मै अपने समक्ष आपके द्वारा वर्णित आपके वास्तविक रूप में देख रहा हूँ, किन्तु मै यह देखने का इच्छुक हूँ कि आप इस दृश्य जगत में किस प्रकार प्रविष्ट हुए हैं, मै आपके उसी रूप का दर्शन करना चाहता हूँ। हे प्रभु – हे योगेश्वर, यदि आप सोचते हैं कि मै आपके विश्वरूप को देखने में समर्थ हो सकता हूँ, तो कृपा करके मुझे अपना विश्वरूप दिखलाइये।

भगवान श्री कृष्ण ने कहा – हे अर्जुन – हे पार्थ, अब तुम मेरे ऐश्वर्य को, सैकड़ों-हजारों प्रकार के दैवी तथा विविध रंगो वाले रूपों को देखो। हे भारत, लो तुम आदित्यों, वसुओं, रुद्रों, अश्विनीकुमारों तथा अन्य देवताओं के विभिन्न रूपों को यहाँ देखो, तुम ऐसे अनेक आश्चर्यमय रूपों को देखो, जिन्हें पहले किसी ने न तो कभी देखा है, न सुना है।

हे अर्जुन, तुम जो भी देखना चाहो, उसे तत्क्षण मेरे इस शरीर में देखो, तुम इस समय तथा भविष्य में भी जो भी देखना चाहते हो, उसको यह विश्वरूप दिखाने वाला है, यहाँ एक ही स्थान पर चर-अचर सब कुछ है। हे पार्थ, किन्तु तुम मुझे अपनी इन आँखों से नहीं देख सकते, अतः मै तुम्हें दिव्य ऑंखें प्रदान कर रहा हूँ, अब तुम मेरे योग ऐश्वर्य को देखो।

संजय ने धृतराष्ट्र से कहा – हे राजन, इस प्रकार कहकर महायोगेश्वर भगवान ने अर्जुन को अपना विश्वरूप दिखलाया। अर्जुन ने उस विश्वरूप में असंख्य मुख, असंख्य नेत्र तथा असंख्य आश्चर्यमय दृश्य देखे, यह रूप अनेक दैवी आभूषणों से अलंकृत था और अनेक दैवी हथियार उठाये हुए था, यह दैवी मालाएं तथा वस्त्र धारण किये था और उस पर अनेक दिव्य सुगंधियाँ लगी थी, सब कुछ आश्चर्यमय, तेजमय, असीम तथा सर्वत्र व्याप्त था।

यदि आकाश में हजारों सूर्य एक साथ उदय हों, तो उनका प्रकाश शायद परमपुरुष के इस विश्वरूप के तेज की समता कर सके। उस समय अर्जुन भगवान के विश्वरूप में एक ही स्थान पर स्थित हजारों भागों में विभक्त ब्रह्माण्ड के अनन्त अंशों को देख सके। तब मोहग्रस्त एवं आश्चर्यचकित रोमांचित हुए अर्जुन ने प्रणाम करने के लिए मस्तक झुकाया और वह हाथ जोड़कर भगवान से प्रार्थना करने लगे।

अर्जुन ने कहा – हे भगवान श्री कृष्ण, मै आपके शरीर में सारे देवताओं तथा अन्य विविध जीवों को एकत्र देख रहा हूँ, मै कमल पर आसीन ब्रह्मा, शिव जी तथा समस्त ऋषियों एवं दिव्य सर्पों को देख रहा हूँ। हे विश्वेश्वर – हे विश्वरूप, मै आपके शरीर में अनेकानेक हाथ, पेट, मुँह तथा आँखें देख रहा हूँ, जो सर्वत्र फैले हैं और जिनका अंत नहीं है, आपमें न अंत दीखता है, न मध्य और न आदि।

भाँति अथवा सूर्य के अपार प्रकाश की भाँति चारों ओर फ़ैल रहा है, तो भी मै इस तेजोमय रूप को सर्वत्र देख रहा हूँ, जो अनेक मुकुटों, गदाओं तथा चक्रों से विभूषित है। आप परम आद्य ज्ञेय वस्तु हैं, आप इस ब्रह्माण्ड के परम आधार हैं, आप अव्यय तथा पुराण पुरुष हैं, आप सनातन धर्म के पालक भगवान हैं, यही मेरा मत है। आप आदि, मध्य तथा अंत से रहित हैं, आपका यश अनंत है, आपकी असंख्य भुजाएँ हैं और सूर्य तथा चन्द्रमा आपकी आँखें हैं, मै आपके मुख से प्रज्ज्वलित अग्नि निकलते और आपके तेज से इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को जलते हुए देख रहा हूँ।

यद्यपि आप एक हैं, किन्तु आप आकाश तथा सारे लोकों एवं उनके बीच के समस्त अवकाश में व्याप्त हैं। हे महापुरुष, आपके इस अद्भुत तथा भयानक रूप को देखकर सारे लोक भयभीत हैं। देवों का सारा समूह आपकी शरण ले रहा है और आप में प्रवेश कर रहा है, उनमें से कुछ अत्यंत भयभीत होकर हाथ जोड़े आपकी प्रार्थना कर रहे हैं, महर्षियों तथा सिद्धों के समूह “कल्याण हो” कहकर वैदिक स्तोत्रों का पाठ करते हुए आपकी स्तुति कर रहे हैं।

शिव के विविध रूप, आदित्यगण, वसु, साध्य, विश्वेदेव, दोनों अश्विनीकुमार, मरुद्गण, पितृगण, गन्धर्व, यक्ष, असुर तथा सिद्धदेव सभी आपको आश्चर्यपूर्वक देख रहे हैं। हे महाबाहु, आपके इस अनेक मुख, नेत्र, बाहु, जंघा, पाँव, पेट तथा भयानक दाँतों वाले विराट रूप को देखकर देवतागण सहित सभी लोक अत्यंत विचलित हैं और उन्हीं की तरह मै भी हूँ

हे सर्वव्यापी विष्णु, नाना ज्योतिर्मय रंगों से युक्त आपको आकाश का स्पर्श करते, मुख फैलाये तथा बड़ी-बड़ी चमकती आँखें निकाले देखकर भय से मेरा मन विचलित है, मै न तो धैर्य धारण कर पा रहा हूँ और न ही मानसिक संतुलन ही पा रहा हूँ। हे देवेश – हे जगन्निवास, आप मुझ पर प्रसन्न हो, मै इस प्रकार से आपके प्रलयाग्नि स्वरुप मुखों को तथा विकराल दाँतों को देखकर अपना संतुलन नहीं रख पा रहा, मै सब ओर से मोहग्रस्त हो रहा हूँ।

धृतराष्ट्र के सारे पुत्र अपने समस्त सहायक राजाओं सहित तथा भीष्म, द्रोण, कर्ण एवं हमारे प्रमुख योद्धा भी आपके विकराल मुख में प्रवेश कर रहे हैं, उनमें से कुछ के शिरों को तो मै आपके दाँतों के बीच चूर्णित हुआ देख रहा हूँ। जिस प्रकार नदियों की अनेक तरंगे समुद्र में प्रवेश करती हैं, उसी प्रकार ये समस्त महान योद्धा भी आपके प्रज्ज्वलित मुखों में प्रवेश कर रहे हैं।

मै समस्त लोगों को पूर्ण वेग से आपके मुख में उसी प्रकार प्रविष्ट होते देख रहा हूँ, जिस प्रकार पतिंगे अपने विनाश के लिए प्रज्ज्वलित अग्नि में कूद पड़ते हैं। हे विष्णु, मै देखता हूँ कि आप अपने प्रज्ज्वलित मुखों से सभी दिशाओं के लोगों को निगले जा रहे हैं, आप सारे ब्रह्माण्ड को अपने तेज से आपूरित करके अपनी विकराल झुलसाती किरणों सहित प्रकट हो रहे हैं।

हे देवेश, कृपा करके मुझे बतलाइये कि इतने उग्र रूप में आप कौन हैं, मै आपको नमस्कार करता हूँ, कृपा करके मुझ पर प्रसन्न हों, आप आदि भगवान हैं, मै आपको जानना चाहता हूँ, क्योंकि मै नहीं जान पा रहा हूँ कि आपका प्रयोजन क्या है।

भगवान श्री कृष्ण ने कहा – हे अर्जुन, समस्त जगतों को विनष्ट करने वाला काल मै हूँ और मै यहाँ समस्त लोगों का विनाश करने के लिए आया हूँ, तुम्हारे (पाण्डवों के) सिवा दोनों पक्षों के सारे योद्धा मारे जायेंगे। अतः उठो, लड़ने के लिए तैयार होवो और यश अर्जित करो, अपने शत्रुओं को जीतकर संपन्न राज्य का भोग करो, ये सब मेरे द्वारा पहले ही मारे जा चुके हैं और हे सव्यसाची तुम तो युद्ध में केवल निमित्त मात्र हो।

हे अर्जुन – द्रोण, भीष्म, जयद्रथ, कर्ण तथा अन्य महान योद्धा पहले ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं, अतः तुम उनका वध करो और तनिक भी विचलित न होवो, तुम  केवल युद्ध करो, युद्ध में  शत्रुओं को परास्त करोगे।

संजय ने धृतराष्ट्र से कहा – हे राजन, भगवान के मुख से इन वचनों को सुनकर काँपते हुए अर्जुन ने हाथ जोड़कर उन्हें बारम्बार नमस्कार किया, फिर उसने भयभीत होकर अवरुद्ध स्वर में श्री कृष्ण से इस प्रकार कहा।

अर्जुन ने कहा – हे ऋषिकेश, आपके नाम के श्रवण से संसार हर्षित होता है और सभी लोग आपके प्रति अनुरक्त होते हैं, यद्यपि सिद्ध पुरुष आपको नमस्कार करते हैं, किन्तु असुरगण भयभीत हैं और इधर-उधर भाग रहे हैं, यह ठीक ही हुआ है। हे महात्मा, आप ब्रह्मा से भी बढ़कर हैं, आप आदि स्रष्टा हैं, तो फिर वे आपको सादर नमस्कार क्यों ना करें, हे अनन्त, हे देवेश, हे जगन्नाथ, आप परम स्रोत, अक्षर, कारणों के कारण तथा इस भौतिक जगत से परे हैं।

हे वासुदेव, आप आदि देव, सनातन पुरुष तथा इस दृश्य जगत के परम आश्रय हैं, आप सब कुछ जानने वाले हैं और आप ही वह सब कुछ हैं, जो जानने योग्य है, आप भौतिक गुणों से परे परम आश्रय हैं, हे अनन्त रूप यह सम्पूर्ण दृश्य जगत आपसे व्याप्त है। हे जगतगुरु, आप वायु हैं तथा परम नियन्ता भी हैं, आप अग्नि हैं, जल हैं तथा चन्द्रमा हैं, आप आदि जीव ब्रह्मा हैं  प्रपितामह हैं, अतः आपको हजार बार नमस्कार है और पुनः-पुनः नमस्कार है।

हे विश्वरूप, आपको आगे-पीछे तथा चारों ओर से नमस्कार है। हे असीम शक्ति, आप अनन्त पराक्रम के स्वामी हैं, आप सर्वव्यापी हैं, अतः आप सब कुछ हैं। हे केशव, आपको अपना मित्र मानते हुए मैंने हठपूर्वक आपको हे कृष्ण, हे यादव, हे सखा जैसे सम्बोधनों से पुकारा है, क्योंकि मै आपकी महिमा को नहीं जनता था, मैंने मूर्खतावश या प्रेमवश जो कुछ भी किया है, कृपया उसके लिए मुझे क्षमा कर दें, यही नहीं मैंने कई बार आराम करते समय, एक साथ लेटे हुए या साथ-साथ खाते या बैठे हुए, कभी अकेले तो कभी अनेक मित्रों के समक्ष आपका अनादर किया है। हे अच्युत, मेरे इन समस्त अपराधों को क्षमा करें।

हे देवकीनंदन, आप इस चर तथा अचर सम्पूर्ण दृश्यजगत के जनक हैं, आप परम पूज्य महान आध्यात्मिक गुरु हैं, न तो कोई आपके तुल्य है और न ही कोई आपके समान हो सकता है। हे अतुल शक्ति वाले प्रभु, भला तीनों लोकों में आपसे बढ़कर कोई कैसे हो सकता है।

हे भगवान श्री कृष्ण, आप प्रत्येक जीव द्वारा पूजनीय भगवान हैं, अतः मै आपको गिरकर सादर प्रणाम करता हूँ और आपकी कृपा की याचना करता हूँ, जिस प्रकार पिता अपने पुत्र की ढिठाई सहन करता है, या मित्र अपने मित्र की घृष्टता सह लेता है, या प्रिय अपनी प्रिया का अपराध सहन कर लेता है, ठीक उसी प्रकार आप कृपा करके मेरी त्रुटियों को सहन कर लें।

हे जगत के स्वामी, पहले कभी न देखे गए आपके इस विराट रूप का दर्शन करके मै पुलकित हो रहा हूँ, किन्तु साथ ही मेरा मन भयभीत हो रहा है, अतः आप मुझ पर कृपा करें और हे देवेश, हे जगन्निवास, अपना पुरुषोत्तम भगवत स्वरुप पुनः दिखाएँ। हे विराट रूप – हे सहस्रभुज भगवान, मै आपके मुकुटधारी चतुर्भुज रूप का दर्शन करना चाहता हूँ, जिसमें आप अपने चारो हाथों में शंख, चक्र, गदा तथा पद्म धारण किये हुए हों, मै आपके उसी रूप को देखने की इच्छा करता हूँ।

भगवान श्री कृष्ण ने कहा – हे अर्जुन, मैंने प्रसन्न होकर अपनी अन्तरंगा शक्ति के बल पर तुम्हें इस संसार में अपने इस परम विश्वरूप का दर्शन कराया है, इसके पूर्व अन्य किसी ने इस असीम तथा तेजोमय आदि रूप को कभी नहीं देखा है। हे कुरुश्रेष्ठ, तुमसे पूर्व मेरे इस विश्वरूप को किसी ने नहीं देखा, क्योंकि मै न तो वेदाध्ययन के द्वारा, न यज्ञ, दान, पुण्य या कठिन तपस्या के द्वारा इस रूप में, देखा जा सकता हूँ।

हे पार्थ, तुम मेरे इस भयानक रूप को देखकर अत्यन्त विचलित एवं मोहित हो गए हो, अब इसे समाप्त करता हूँ। हे मेरे भक्त, तुम समस्त चिंताओं से पुनः मुक्त हो जाओ, तुम शांत चित्त से अब अपना इच्छित रूप देख सकते

संजय ने धृतराष्ट्र से कहा – अर्जुन से इस प्रकार कहने के बाद भगवान श्री कृष्ण ने अपना असली चतुर्भुज रूप प्रकट किया और अंत में दो भुजाओं वाला अपना रूप प्रदर्शित करके भयभीत अर्जुन को धैर्य बँधाया।

जब अर्जुन ने श्री कृष्ण को उनके आदि रूप में देखा तो कहा – हे जनार्दन, आपके इस अतीव सुन्दर मानवी रूप को देखकर मै अब स्थिरचित्त हूँ और मैंने अपनी प्राकृत अवस्था प्राप्त कर ली है।

श्री भगवान ने कहा – हे अर्जुन, तुम मेरे जिस रूप को इस समय देख रहे हो, उसे देख पाना अत्यन्त दुष्कर है, यहाँ तक कि देवता भी इस अत्यन्त प्रिय रूप को देखने की ताक में रहते हैं। हे धनञ्जय, तुम अपने दिव्य नेत्रों से जिस रूप का दर्शन कर रहे हो, उसे न तो वेदाध्ययन से, न कठिन तपस्या से, न दान से, न पूजा से ही जाना जा सकता है, कोई इन साधनों के द्वारा मुझे मेरे रूप में नहीं देख सकता।

हे अर्जुन, केवल अनन्य भक्ति द्वारा मुझे उस रूप में समझा जा सकता है, जिस रूप में मै तुम्हारे समक्ष खड़ा हूँ और इसी प्रकार मेरा साक्षात् दर्शन भी किया जा सकता है, केवल इसी विधि से तुम मेरे ज्ञान के रहस्य को पा सकते हो। हे अर्जुन, जो व्यक्ति सकाम कर्मों तथा मनोधर्म के कल्मष से मुक्त होकर, मेरी शुद्ध भक्ति में तत्पर रहता है, जो मेरे लिए ही कर्म करता है, जो मुझे ही जीवन लक्ष्य समझता है और जो प्रत्येक जीव से मैत्रीभाव रखता है, वह निश्चय ही मुझे प्राप्त करता है।

दोस्तों, आशा करता हूँ कि यह आर्टिकल  गीता अध्याय-११ विश्वरूप दर्शन योग || Operation Gita आपके ज्ञान के भंडार को पहले से और बेहतर बनायेगा साथ ही आपको बुद्धजीवियों की श्रेणी में लेकर जायेगा, तो आज के लिए सिर्फ इतना ही, अगले आर्टिकल में हम फिर मिलेंगे, गीता अध्याय-१२  के साथ, तब तक के लिए, जय हिन्द-जय भारत

लेखक परिचय

इस वेबसाइट के संस्थापक अमित दुबे हैं, जो दिल्ली में रहते हैं, एक Youtuber & Blogger हैं, किताबें पढ़ने और जानकारियों को अर्जित करके लोगों के साथ शेयर करने के शौक के कारण सोशल मीडिया के क्षेत्र में आये हैं और एक वेबसाइट तथा दो Youtube चैनल के माध्यम से लोगों को Motivate करने तथा ज्ञान का प्रसार करने का काम कर रहे हैं।

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