गीता अध्याय-१२ भक्तियोग || Operation Gita

दोस्तों, गीता अध्याय-११ विश्वरूप दर्शन योग के अंत में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को बताया कि हे अर्जुन, जो व्यक्ति सकाम कर्मों तथा मनोधर्म के कल्मष से मुक्त होकर, मेरी शुद्ध भक्ति में तत्पर रहता है, जो मेरे लिए ही कर्म करता है, जो मुझे ही जीवन लक्ष्य समझता है और जो प्रत्येक जीव से मैत्रीभाव रखता है, वह निश्चय ही मुझे प्राप्त करता है। इससे आगे गीता अध्याय-१२ भक्तियोग || Operation Gita में श्री कृष्ण अर्जुन से क्या कहते हैं आइये जानते हैं।

गीता अध्याय-१२ भक्तियोग || Operation Gita
गीता अध्याय-१२ भक्तियोग || Operation Gita

गीता अध्याय-१२ भक्तियोग || Operation Gita

अर्जुन उवाच

गीता अध्याय-१२ श्लोक=१

एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते। 

ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः।।

भावार्थ

अर्जुन ने भगवान श्री कृष्ण से पूछा, कि जो आपकी सेवा में सदैव तत्पर रहते हैं, या जो अव्यक्त निर्विशेष ब्रह्म की पूजा करते हैं, इन दोनों में से किसे अधिक पूर्ण (सिद्ध) माना जाय ?

श्री भगवानुवाच

गीता अध्याय-१२ श्लोक=२  

मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते। 

श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः।।

भावार्थ

भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को बताया, कि जो लोग अपने मन को मेरे साकार रूप में एकाग्र करते हैं और अत्यन्त श्रद्धापूर्वक मेरी पूजा करने में सदैव लगे रहते है, वे मेरे द्वारा परम सिद्ध माने जाते हैं।

गीता अध्याय-१२ श्लोक=३-४ 

ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।

सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्‌।।

सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः। 

ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः।। 

भावार्थ

हे अर्जुन, लेकिन जो लोग अपनी इन्द्रियों को वश में करके तथा सबों के प्रति समभाव रखकर परम सत्य की निराकार कल्पना के अंतर्गत उस अव्यक्त की पूरी तरह से पूजा करते हैं, जो इन्द्रियों की अनुभूति से परे हैं, सर्वव्यापी हैं, अकल्पनीय हैं, अपरिवर्तनीय हैं, अचल तथा ध्रुव हैं, वे समस्त लोगों के कल्याण में संलग्न रहकर अन्ततः मुझे प्राप्त करते हैं।

गीता अध्याय-१२ श्लोक=५

क्लेशोऽधिकतरस्तेषामवयकतासक्तचेतसाम्‌। 

अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते।।

भावार्थ

हे पार्थ, जिन लोगों के मन परमेश्वर के अव्यक्त, निराकार स्वरुप के प्रति आसक्त हैं, उनके लिए प्रगति कर पाना अत्यन्त कष्टप्रद है। देहधारियों के लिए उस क्षेत्र में प्रगति कर पाना सदैव दुष्कर होता है।

गीता अध्याय-१२ श्लोक=६-७  

ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि सन्यस्य मत्पराः। 

अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते।। 

तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्‌। 

भवामि न चिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्‌।।

भावार्थ

हे धनञ्जय, जो अपने सारे कार्यों को मुझमे अर्पित करके तथा अविचलित भाव से मेरी भक्ति करते हुए मेरी पूजा करते हैं और अपने चित्तों को मुझ पर स्थिर करके निरंतर मेरा ध्यान करते हैं,

गीता अध्याय-१२ श्लोक=८  

मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय। 

निवसिष्यसि मय्येव अत उर्ध्व न संशयः।। 

भावार्थ

इसलिए – हे अर्जुन, मुझ भगवान में अपने चित्त को स्थिर करो और अपनी सारी बुद्धि मुझमे लगाओ। इस प्रकार तुम निःसंदेह मुझमे सदैव वाश करोगे।

गीता अध्याय-१२ श्लोक=९  

अथ चितं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम्‌। 

अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जयः।। 

भावार्थ

हे अर्जुन – हे धनञ्जय, यदि तुम अपने चित्त को अविचल भाव से मुझ पर स्थिर नहीं कर सकते, तो तुम भक्तियोग के विधि-विधानों का पालन करो। इस प्रकार तुम मुझे प्राप्त करने की चाह उत्पन्न करो।

गीता अध्याय-१२ श्लोक=१० 

अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव। 

मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि।। 

भावार्थ

हे कुन्तीपुत्र, यदि तुम भक्तियोग के विधि-विधानों का भी अभ्यास नहीं कर सकते, तो मेरे लिए कर्म करने का प्रयत्न करो, क्योंकि मेरे लिए कर्म करने से तुम पूर्ण अवस्था (सिद्धि) को प्राप्त होंगे।

गीता अध्याय-१२ श्लोक=११ 

अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः। 

सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्‌म्‌।।  

भावार्थ

हे अर्जुन, किन्तु यदि तुम मेरे इस भावनामृत में कर्म करने में असमर्थ हो तो तुम अपने कर्म के समस्त फलों को त्याग कर कर्म करने का तथा आत्म-स्थित होने का प्रयत्न करो।

गीता अध्याय-१२ श्लोक=१२

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते। 

ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्‌।। 

भावार्थ

इसलिए हे अर्जुन, यदि तुम यह अभ्यास नहीं कर सकते, तो ज्ञान के अनुशीलन में लग जाओ, लेकिन ज्ञान से श्रेष्ठ ध्यान है और ध्यान से भी श्रेष्ठ है कर्म फलों का परित्याग क्योंकि ऐसे त्याग से मनुष्य को मनः शान्ति प्राप्त हो सकती हैं।

गीता अध्याय-१२ श्लोक=१३-१४  

अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च। 

निर्ममो निरहंकारः समदुःखसुःख क्षमी।। 

संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चयः। 

मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स में प्रियः।। 

भावार्थ

हे अर्जुन, जो किसी से द्वेष नहीं करता, लेकिन सभी जीवों का दयालु मित्र है, जो अपने को स्वामी नहीं मानता और मिथ्या अहंकार से मुक्त  है, जो सुख-दुख में समभाव रहता है, सहिष्णु है, सदैव आत्मतुष्ट रहता है, आत्मसंयमी है तथा जो निश्चय के साथ मुझमे मन तथा बुद्धि को स्थिर करके भक्ति में लगा रहता है, ऐसा भक्त मुझे अत्यन्त प्रिय है।

गीता अध्याय-१२ श्लोक=१५ 

यस्मान्नोद्धिजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः। 

हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः।। 

भावार्थ

हे पार्थ, जिससे किसी को कष्ट नहीं पहुँचता तथा जो अन्य किसी द्वारा विचलित नहीं किया जाता, जो सुख-दुख में, भय तथा चिंता में समभाव रहता है, वह मुझे अत्यन्त प्रिय है।

 

गीता अध्याय-१२ श्लोक=१६ 

अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यतः। 

सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः।। 

भावार्थ

हे धनञ्जय, मेरा ऐसा भक्त जो सामान्य कार्यकलापों पर आश्रित नहीं है, जो शुद्ध है, दक्ष है, चिंतारहित है, समस्त कष्टों से रहित है और किसी फल के लिए प्रयत्नशील नहीं रहता, मुझे अतिशय प्रिय है।

गीता अध्याय-१२ श्लोक=१७

यो न हष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति। 

शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः।। 

भावार्थ

हे कुन्तीपुत्र, जो न कभी हर्षित होता है, न शोक करता है, जो न तो पछताता है, न इच्छा करता है, तथा जो शुभ तथा अशुभ दोनों प्रकार की वस्तुओं का परित्याग कर देता है, ऐसा भक्त मुझे अत्यन्त प्रिय है।

गीता अध्याय-१२ श्लोक=१८-१९   

समः शत्रौः च मित्रे च तथा मानापमानयोः। 

शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः।। 

तुल्यनिंदास्तुतिर्मोनी सन्तुष्टो येन केनचित्‌। 

अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः।। 

भावार्थ

हे महाबाहो, जो मित्रों तथा शत्रुओं के लिए समान है, जो मान तथा अपमान, शीत तथा गर्मी, सुख तथा दुख, यश तथा अपयश में समभाव रखता है, जो दूषित संगति से सदैव मुक्त रहता है, जो सदैव मौन और किसी भी वास्तु से संतुष्ट रहता है, जो किसी प्रकार के घर-बार की परवाह नहीं करता, जो ज्ञान में दृढ़ है और जो भक्ति में संलग्न है-ऐसा पुरुष मुझे अत्यन्त प्रिय है।

गीता अध्याय-१२ श्लोक=२० 

ये तू धर्मामृतमृदं यथोक्तं पर्युपासते। 

श्रद्घाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः।। 

भावार्थ

 हे अर्जुन, जो इस भक्ति के अमर पथ का अनुसरण करते  हैं, और जो मुझे ही अपना चरम लक्ष्य बनाकर श्रद्धा सहित पूर्णरूपेण संलग्न रहते हैं, वे भक्त मुझे अत्यधिक प्रिय हैं।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायांयोगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे भक्तियोगो नाम द्वादशोऽध्यायः समाप्त॥

इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद्भगवद्गीता के श्री कृष्ण-अर्जुन संवाद में भक्तियोग नाम का बारहवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ।

।। हरिः ॐ तत् सत्।।

सारांश

दोस्तों, गीता अध्याय ११ विश्वरूप दर्शन योग में भगवान के साक्षात् दर्शन प्राप्त करने के बाद अर्जुन धन्य हो गए, उनका जीवन सार्थक हो गया, तत्पश्चात अर्जुन ने श्री कृष्ण से कुछ और जानने की जिज्ञासा इससे उत्पन्न की, कि हे प्रभु मनुष्य ऐसा कौन सा राह अपनाये जिससे आप उस पर प्रसन्न हों, और उसके लिए मुक्ति की राह आसान हो सके ?

अर्जुन के इस सवाल के जबाब में भगवान श्री कृष्ण उन्हें भक्तियोग के बारे में विस्तार पूर्वक बतलाते हैं, और वह भक्तियोग क्या है आइये जानते हैं………..

अर्जुन ने भगवान श्री कृष्ण से पूछा, कि जो आपकी सेवा में सदैव तत्पर रहते हैं, या जो अव्यक्त निर्विशेष ब्रह्म की पूजा करते हैं, इन दोनों में से किसे अधिक पूर्ण (सिद्ध) माना जाय ?

अर्जुन के इस सवाल पर भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को बताया, कि जो लोग अपने मन को मेरे साकार रूप में एकाग्र करते हैं और अत्यन्त श्रद्धापूर्वक मेरी पूजा करने में सदैव लगे रहते है, वे मेरे द्वारा परम सिद्ध माने जाते हैं।

हे अर्जुन, लेकिन जो लोग अपनी इन्द्रियों को वश में करके तथा सबों के प्रति समभाव रखकर परम सत्य की निराकार कल्पना के अंतर्गत उस अव्यक्त की पूरी तरह से पूजा करते हैं, जो इन्द्रियों की अनुभूति से परे हैं, सर्वव्यापी हैं, अकल्पनीय हैं, अपरिवर्तनीय हैं, अचल तथा ध्रुव हैं, वे समस्त लोगों के कल्याण में संलग्न रहकर अन्ततः मुझे प्राप्त करते हैं।

हे पार्थ, जिन लोगों के मन परमेश्वर के अव्यक्त, निराकार स्वरुप के प्रति आसक्त हैं, उनके लिए प्रगति कर पाना अत्यन्त कष्टप्रद है। देहधारियों के लिए उस क्षेत्र में प्रगति कर पाना सदैव दुष्कर होता है।

 

हे धनञ्जय, जो अपने सारे कार्यों को मुझमे अर्पित करके तथा अविचलित भाव से मेरी भक्ति करते हुए मेरी पूजा करते हैं और अपने चित्तों को मुझ पर स्थिर करके निरंतर मेरा ध्यान करते हैं, इसलिए – हे अर्जुन, मुझ भगवान में अपने चित्त को स्थिर करो और अपनी सारी बुद्धि मुझमे लगाओ। इस प्रकार तुम निःसंदेह मुझमे सदैव वाश करोगे।

हे अर्जुन – हे धनञ्जय, यदि तुम अपने चित्त को अविचल भाव से मुझ पर स्थिर नहीं कर सकते, तो तुम भक्तियोग के विधि-विधानों का पालन करो। इस प्रकार तुम मुझे प्राप्त करने की चाह उत्पन्न करो। हे कुन्तीपुत्र, यदि तुम भक्तियोग के विधि-विधानों का भी अभ्यास नहीं कर सकते, तो मेरे लिए कर्म करने का प्रयत्न करो, क्योंकि मेरे लिए कर्म करने से तुम पूर्ण अवस्था (सिद्धि) को प्राप्त होंगे।

 

हे अर्जुन, किन्तु यदि तुम मेरे इस भावनामृत में कर्म करने में असमर्थ हो तो तुम अपने कर्म के समस्त फलों को त्याग कर कर्म करने का तथा आत्म-स्थित होने का प्रयत्न करो। इसलिए हे अर्जुन, यदि तुम यह अभ्यास नहीं कर सकते, तो ज्ञान के अनुशीलन में लग जाओ, लेकिन ज्ञान से श्रेष्ठ ध्यान है और ध्यान से भी श्रेष्ठ है कर्म फलों का परित्याग क्योंकि ऐसे त्याग से मनुष्य को मनः शान्ति प्राप्त हो सकती हैं।

हे अर्जुन, जो किसी से द्वेष नहीं करता, लेकिन सभी जीवों का दयालु मित्र है, जो अपने को स्वामी नहीं मानता और मिथ्या अहंकार से मुक्त  है, जो सुख-दुख में समभाव रहता है, सहिष्णु है, सदैव आत्मतुष्ट रहता है, आत्मसंयमी है तथा जो निश्चय के साथ मुझमे मन तथा बुद्धि को स्थिर करके भक्ति में लगा रहता है, ऐसा भक्त मुझे अत्यन्त प्रिय है।

हे पार्थ, जिससे किसी को कष्ट नहीं पहुँचता तथा जो अन्य किसी द्वारा विचलित नहीं किया जाता, जो सुख-दुख में, भय तथा चिंता में समभाव रहता है, वह मुझे अत्यन्त प्रिय है।

 

हे धनञ्जय, मेरा ऐसा भक्त जो सामान्य कार्यकलापों पर आश्रित नहीं है, जो शुद्ध है, दक्ष है, चिंतारहित है, समस्त कष्टों से रहित है और किसी फल के लिए प्रयत्नशील नहीं रहता, मुझे अतिशय प्रिय है। हे कुन्तीपुत्र, जो न कभी हर्षित होता है, न शोक करता है, जो न तो पछताता है, न इच्छा करता है, तथा जो शुभ तथा अशुभ दोनों प्रकार की वस्तुओं का परित्याग कर देता है, ऐसा भक्त मुझे अत्यन्त प्रिय है।

हे महाबाहो, जो मित्रों तथा शत्रुओं के लिए समान है, जो मान तथा अपमान, शीत तथा गर्मी, सुख तथा दुख, यश तथा अपयश में समभाव रखता है, जो दूषित संगति से सदैव मुक्त रहता है, जो सदैव मौन और किसी भी वास्तु से संतुष्ट रहता है, जो किसी प्रकार के घर-बार की परवाह नहीं करता, जो ज्ञान में दृढ़ है और जो भक्ति में संलग्न है-ऐसा पुरुष मुझे अत्यन्त प्रिय है।

 हे अर्जुन, जो इस भक्ति के अमर पथ का अनुसरण करते  हैं, और जो मुझे ही अपना चरम लक्ष्य बनाकर श्रद्धा सहित पूर्णरूपेण संलग्न रहते हैं, वे भक्त मुझे अत्यधिक प्रिय हैं।

दोस्तों, आशा करता हूँ कि यह आर्टिकल गीता अध्याय-१२ भक्तियोग || Operation Gita आपके ज्ञान के भंडार को पहले से और बेहतर बनायेगा साथ ही आपको बुद्धजीवियों की श्रेणी में लेकर जायेगा, तो आज के लिए सिर्फ इतना ही, अगले आर्टिकल में हम फिर मिलेंगे, किसी नए टॉपिक के साथ, तब तक के लिए, जय हिन्द-जय भारत

लेखक परिचय

इस वेबसाइट के संस्थापक अमित दुबे हैं, जो दिल्ली में रहते हैं, एक Youtuber & Blogger हैं, किताबें पढ़ने और जानकारियों को अर्जित करके लोगों के साथ शेयर करने के शौक के कारण सोशल मीडिया के क्षेत्र में आये हैं और एक वेबसाइट तथा दो Youtube चैनल के माध्यम से लोगों को Motivate करने तथा ज्ञान का प्रसार करने का काम कर रहे हैं।

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