गीता अध्याय-५ कर्म-सन्यास योग || Operation Gita

दोस्तों, पिछले आर्टिकल अध्याय-४ (ज्ञान-कर्म-सन्यास-योग) के अंत में श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि हे अर्जुन, अतएव तुम्हारे ह्रदय में अज्ञान के कारण जो संशय उठे हैं उन्हें ज्ञान रूपी शस्त्र से काट डालो। हे भारत, तुम योग से समन्वित होकर खड़े होवो और युद्ध करो। इससे आगे श्री कृष्ण और क्या कहते हैं यह जानने के लिए आइये और आगे बढ़ते हैं और पढ़ते हैं यह गीता अध्याय-५ कर्म-सन्यास योग || Operation Gita, तो आइये अब शुरू करते हैं।

गीता अध्याय-५ कर्म-सन्यास-योग Operation Gita
गीता अध्याय-५ कर्म-सन्यास-योग Operation Gita

गीता अध्याय-५ कर्म-सन्यास योग || Operation Gita

अर्जुन उवाच

अध्याय-५ श्लोक=१

संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शाससि। 

यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्‌।।

भावार्थ

अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण, पहले आप मुझसे कर्म त्यागने के लिए कहते हैं और फिर भक्तिपूर्वक कर्म करने का आदेश देते हैं, क्या आप अब कृपा करके निश्चित रूप से मुझे बताएँगे कि इन दोनों  में से कौन लाभप्रद है ?

श्री भगवानुवाच

अध्याय-५ श्लोक=२ 

सन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ। 

तयोस्तु कर्मसन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते।। 

भावार्थ 

श्री भगवान ने उत्तर दिया – हे अर्जुन, मुक्ति के लिए तो कर्म का परित्याग तथा भक्तिमय-कर्म (कर्मयोग) दोनों ही उत्तम है, किन्तु इन दोनों में से परित्याग से भक्तियुक्त कर्म श्रेष्ठ है।

अध्याय-५ श्लोक=३ 

ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।

निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते।।

भावार्थ 

हे धनञ्जय, जो पुरुष न तो कर्म फलों से घृणा करता है और न कर्म फल की इच्छा करता है, वह नित्य सन्यासी जाना जाता है, इसलिए हे महाबाहु ऐसा  समस्त द्वंदों से रहित होकर भवबंधन को पारकर पूर्णतया मुक्त हो जाता है।

अध्याय-५ श्लोक=४ 

सांख्ययोगो पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः। 

एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्‌।। 

भावार्थ 

हे पार्थ, अज्ञानी ही भक्ति (कर्मयोग) को भौतिक जगत के विश्लेषणात्मक अध्ययन (सांख्य) से भिन्न कहते हैं, जो वस्तुतः ज्ञानी हैं वे कहते हैं कि जो इनमें से किसी एक मार्ग का भली-भाँति अनुसरण करता है, वह दोनों का फल प्राप्त कर लेता है।

अध्याय-५ श्लोक=५ 

यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते। 

एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति।। 

भावार्थ 

हे अर्जुन, जो यह जनता है कि विश्लेषणात्मक अध्ययन (सांख्य) द्वारा प्राप्य स्थान भक्ति द्वारा भी प्राप्त किया जा सकता है, और इस तरह जो सांख्ययोग तथा भक्तियोग को एक समान देखता है, वही वस्तुओं को यथारूप में देखता है।

अध्याय-५ श्लोक=६ 

संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः। 

योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म न चिरेणाधिगच्छति।। 

भावार्थ 

हे पार्थ, भक्ति में लगे बिना केवल समस्त कर्मों का परित्याग करने से कोई सुखी नहीं बन सकता, परन्तु भक्ति में लगा हुआ विचारवान व्यक्ति शीघ्र ही परमेश्वर को प्राप्त कर लेता है।

अध्याय-५ श्लोक=७ 

योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः। 

सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते।। 

भावार्थ 

हे धनञ्जय, जो भक्तिभाव से कर्म करता है, जो विशुद्ध आत्मा है और अपने मन तथा इन्द्रियों को वश में रखता है, वह सभी को प्रिय होता है और सभी लोग उसे प्रिय होते हैं, और ऐसा व्यक्ति कर्म करते हुए भी कभी नहीं बँधता।

गीता अध्याय-५ कर्म-सन्यास योग || Operation Gita

अध्याय-५ श्लोक=८ 

नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्‌।

पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपंश्वसन्‌।। 

भावार्थ 

 हे अर्जुन, कर्मयोगी परमतत्व परमात्मा की अनुभूति करके दिव्य चेतना में स्थित होकर, देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूंघता हुआ, भोजन करता हुआ, चलता हुआ, सोता हुआ, श्वांस लेता हुआ इस प्रकार यही सोचता है कि मै कुछ भी नहीं करता हूँ।

अध्याय-५ श्लोक=९

प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि। 

इन्द्रियाणिन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्‌।। 

भावार्थ 

हे अर्जुन, कर्मयोगी बोलता हुआ, त्यागता हुआ, ग्रहण करता हुआ तथा आँखों को खोलता और बंद करता हुआ भी यही सोचता है कि सभी इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों में प्रवृत्त हो रही हैं, ऐसी धारणा वाला होता है।

अध्याय-५ श्लोक=१० 

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः। 

लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा।। 

भावार्थ 

हे कुन्तीपुत्र अर्जुन, जो व्यक्ति कर्मफलों को परमेश्वर को समर्पित करके अशक्तिरहित होकर अपना कर्म करता है, वह पापकर्मों से उसी तरह प्रभावित रहता है, जिस प्रकार कमलपत्र जल से अस्पृश्य रहता है।

अध्याय-५ श्लोक=११

कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि। 

योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धते।।  

भावार्थ 

हे पार्थ, योगीजन अशक्तिरहित होकर शरीर, मन, बुद्धि तथा इन्द्रियों के द्वारा भी केवल शुद्धि के लिए कर्म करते हैं।

अध्याय-५ श्लोक=१२ 

युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्‌।

अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते।।  

भावार्थ 

हे अर्जुन, निश्चल भक्त शुद्ध शान्ति प्राप्त करता है क्योंकि वह समस्त कर्मफल मुझे अर्पित कर देता है, किन्तु जो व्यक्ति भगवान से युक्त नहीं है और जो अपने श्रम का फलकामी है, वह बँध जाता है।

अध्याय-५ श्लोक=१३ 

सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी। 

नवद्वारे पुरे देहि नैव कुर्वन्न कायरन्‌।। 

भावार्थ 

हे पार्थ, जब देहधारी जीवात्मा अपनी प्रकृति को वश में कर लेता है और मन में समस्त कर्मों का परित्याग कर देता है तब वह नौ द्वारों वाले नगर (भौतिक शरीर) में बिना कुछ किये कराये सुखपूर्वक रहता है।

अध्याय-५ श्लोक=१४

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः। 

न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।। 

भावार्थ 

हे अर्जुन, शरीर रूपी नगर का स्वामी देहधारी जीवात्मा न तो कर्म का सृजन करता है, न लोगों को कर्म करने के लिए प्रेरित करता है, और न ही कर्मफल की रचना करता है, यह सब तो प्रकृति के गुणों के द्वारा ही किया जाता है।

गीता अध्याय-५ कर्म-सन्यास योग || Operation Gita

अध्याय-५ श्लोक=१५ 

नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः। 

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।। 

भावार्थ

हे पृथापुत्र, परमेश्वर न तो किसी के पापों को ग्रहण करता है और न ही पुण्यों को. किंतु सारे जीवधारी जीव उस अज्ञान के कारण मोहग्रस्त रहते हैं, जो उनके वास्तविक ज्ञान को आच्छादित किये रहता है।

अध्याय-५ श्लोक=१६

ज्ञानेन तू तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः। 

तेषामदित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्‌।।

भावार्थ

 हे अर्जुन, किन्तु जब कोई उस ज्ञान से प्रबुद्ध होता है, जिसमें अविद्या का विनाश होता है, तो उसके ज्ञान से सब कुछ उसी तरह प्रकट हो जाता है, जैसे दिन में सूर्य से सारी वस्तुएं प्रकाशित हो जाती हैं।

अध्याय-५ श्लोक=१७ 

तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः। 

गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः।। 

भावार्थ

हे धनञ्जय, जब मनुष्य की बुद्धि, मन, श्रद्धा तथा शरण सब कुछ भगवान् में स्थिर हो जाते हैं, तभी वह पूर्णज्ञान द्वारा समस्त कल्मष से शुद्ध होता है और मुक्ति के पढ़ पर अग्रसर होता है।

अध्याय-५ श्लोक=१८ 

विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि। 

शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः।। 

भावार्थ

हे अर्जुन, विनम्र साधुपुरुष अपने वास्तविक ज्ञान के कारण एक विद्वान तथा विनीत ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ता तथा चांडाल को समान दृष्टि से देखते हैं।

अध्याय-५ श्लोक=१९ 

इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः। 

निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्राह्मणी ते स्थिताः।।  

भावार्थ

हे पार्थ, जिनके मन एकत्व तथा समता में स्थित हैं उन्होंने जन्म तथा मृत्यु के बंधनों को पहले ही जीत लिया है, वे ब्रह्म के समान निर्दोष हैं और सदा ब्रह्म में ही स्थित रहते हैं।

अध्याय-५ श्लोक=२० 

न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्‌। 

स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्राह्मणी स्थितः।।  

भावार्थ

हे धनञ्जय, जो न तो प्रिय वस्तु को पाकर हर्षित होता है और न ही अप्रिय को पाकर विचलित होता है, जो स्थिर बुद्धि है, जो मोहरहित और भगवदविद्या को जानने वाला है, वह पहले से ही ब्रह्म में स्थित रहता है।

अध्याय-५ श्लोक=२१ 

बाह्मस्पर्शेष्वसक्तात्मा बिन्दत्यात्मनि यत्सुखम्‌।

स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते।। 

भावार्थ

हे अर्जुन, ऐसा मुक्त पुरुष भौतिक इन्द्रियसुख की ओर आकृष्ट नहीं होता, अपितु सदैव समाधि में रहकर अपने अंतर में आनंद का अनुभव करता है, इस प्रकार स्वरूपसिद्ध व्यक्ति परब्रह्म में एकाग्रचित्त होने के कारण असीम सुख भोगता है।

गीता अध्याय-५ कर्म-सन्यास योग || Operation Gita 

अध्याय-५ श्लोक=२२ 

ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते। 

आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः।। 

भावार्थ

हे पृथापुत्र, बुद्धिमान मनुष्य दुख के कारणों में भाग नहीं लेता जो कि भौतिक इन्द्रियों के संसर्ग से उत्पन्न होते हैं। हे कुन्तीपुत्र, ऐसे भोगों का आदि तथा अंत होता है, अतः चतुर व्यक्ति उनमें आनंद नहीं लेता।

अध्याय-५ श्लोक=२३ 

शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्‌।

कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः।।  

भावार्थ

हे अर्जुन, यदि इस शरीर को त्यागने के पूर्व कोई मनुष्य इन्द्रियों के वेगों को सहन करने तथा इच्छा एवं क्रोध के वेग को रोकने में समर्थ होता है, तो वह इस संसार में सुखी रह सकता है।

अध्याय-५ श्लोक=२४ 

योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथांतर्ज्योतिरेव यः। 

स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति।।  

भावार्थ

हे अर्जुन, जो अंतःकरण में सुख का अनुभव करता है जो कर्मठ है और अंतःकरण में ही रमण करता है तथा जिसका लक्ष्य अंतर्मुखी होता है वह सचमुच पूर्ण योगी है, वह परब्रह्म में मुक्ति पाता है और अंततोगत्वा ब्रह्म को प्राप्त होता है।

अध्याय-५ श्लोक=२५ 

लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः। 

छीन्नद्वेधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः।।

भावार्थ

हे पार्थ, जो लोग संसय से उत्पन्न होने वाले द्वैत से परे हैं, जिनके मन आत्म-साक्षात्कार में रत हैं, जो समस्त जीवों के कल्याणकार्य करने में सदैव व्यस्त रहते हैं और जो समस्त पापों से रहित है, वे ब्रह्मनिर्वाण (मुक्ति) को प्राप्त होते हैं।

अध्याय-५ श्लोक=२६ 

कामक्रोधविमुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्‌।

अभितो ब्रह्मनिर्वाणं बर्तते विदितात्मनाम्‌।।

भावार्थ

हे अर्जुन, जो क्रोध तथा समस्त भौतिक इच्छाओं से रहित है, जो स्वरूपसिद्ध, आत्मसंयमी हैं और संसिद्धि के लिए निरंतर प्रयास करते हैं, उनकी मुक्ति निकट भविष्य में निश्चित है।

अध्याय-५ श्लोक=२७

स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः। 

प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ।।

अध्याय-५ श्लोक=२८ 

यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः। 

विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः।।

भावार्थ

हे धनञ्जय, समस्त इन्द्रियविषयों को बाहर करके, दृष्टि को भौहों के मध्य में केंद्रित करके, प्राण तथा अपान वायु को नथुनों के भीतर रोककर और इस तरह मन, इन्द्रियों तथा  बुद्धि को वश में करके जो मोक्ष को लक्ष्य बनाता है वह योगी इच्छा, भय तथा क्रोध से रहित हो जाता है, जो निरंतर इस अवस्था में रहता है, वह अवश्य ही मुक्त है।

अध्याय-५ श्लोक=२९ 

भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्‌।

सुह्वदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति।।

भावार्थ

हे अर्जुन, मुझे समस्त यज्ञों तथा तपस्याओं का परम भोक्ता, समस्त लोकों तथा देवताओं का परमेश्वर एवं समस्त जीवों का उपकारी एवं हितैषी जानकर मेरे भावनामृत से पूर्ण पुरुष भौतिक दुखों से शांति लाभ करता है।

 

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मसन्यासयोग नाम पंचमोऽध्यायः समाप्त। 

इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद्भगवद्गीता के श्री कृष्ण-अर्जुन संवाद में कर्म सन्यास योग नाम का पाँचवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ।

।। हरिः ॐ तत् सत्।।

सारांश

दोस्तों, गीता अध्याय-५ कर्म-सन्यास योग के नाम से जाना जाता है जिसमें भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को बताया है कि जो कर्म के साथ मन का सम्बन्ध है उसे कैसे विशुद्ध किया जाता है, साथ ही साथ यह भी बताया है कि उच्च शिखर पर पहुँचकर सांख्य और योग में किसी भी प्रकार का अंतर नहीं रह जाता है।

श्री कृष्ण यह भी बताते हैं कि – हे अर्जुन, किसी भी एक मार्ग या दिशा को पकड़कर निरंतर चलते रहने वाले को फल की प्राप्ति अवश्य होती है, अगर इंसान अपने सभी कर्मों को समर्पित करके भगवद्भक्ति की राह पर चले तो ऐसा करके वह शांति के ध्रुव बिंदु पर पहुँच सकता है।

श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं – कि हे पार्थ जो व्यक्ति इस संसार में कर्म करते हुए भी कर्म बंधन में नहीं फंसता है, जैसे – (कमल का फूल जल में रहते हुए भी जल में लिप्त नहीं  रहता) बिलकुल उसी प्रकार अगर मनुष्य भी इस संसार में रहते हुए सांसारिक मोह-माया के बीच अपना नियमित कर्म करते हुए भगवद्धाम की शरण में रहे तो ऐसा व्यक्ति साधू कहा जाता है।

इस प्रकार भगवान श्री कृष्ण ने इस अध्याय में कर्मयोग और साधु पुरुष की खूबियों के बारे में बताया है, उन्होंने यह भी बताया है कि इस सृष्टि के सभी जीवों में मै समान रूप से रहता हूँ, इसलिए सभी प्राणियों को यह चाहिए कि वे हर एक प्राणी को समान रूप से  देखें, अर्थात वे सभी समदर्शी बनें।

यहाँ पर हम गीता के एक महत्वपूर्ण श्लोक की चर्चा करेंगे…..

विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि। शुनि चैव श्वपाके च पंडिताः समदर्शिनः।। 

अर्थात, ज्ञानी महापुरुष, विद्या-विनययुक्त ब्राह्मण में, चांडाल में, गाय में, हाथी में और कुत्ते में भी समरूप परमात्मा को देखने वाले होते। हैं

श्री कृष्ण अर्जुन को यह भी बताते हैं कि…..

हे अर्जुन, मुक्ति के लिए तो कर्म का परित्याग तथा भक्तिमय-कर्म (कर्मयोग) दोनों ही उत्तम है, किन्तु इन दोनों में से परित्याग से भक्तियुक्त कर्म श्रेष्ठ है, हे पार्थ, अज्ञानी ही भक्ति (कर्मयोग) को भौतिक जगत के विश्लेषणात्मक अध्ययन (सांख्य) से भिन्न कहते हैं, जो वस्तुतः ज्ञानी हैं वे कहते हैं कि जो इनमें से किसी एक मार्ग का भली-भाँति अनुसरण करता है, वह दोनों का फल प्राप्त कर लेता है।

हे धनञ्जय, जो भक्तिभाव से कर्म करता है, जो विशुद्ध आत्मा है और अपने मन तथा इन्द्रियों को वश में रखता है, वह सभी को प्रिय होता है और सभी लोग उसे प्रिय होते हैं, और ऐसा व्यक्ति कर्म करते हुए भी कभी नहीं बँधता। हे पार्थ, जब देहधारी जीवात्मा अपनी प्रकृति को वश में कर लेता है और मन में समस्त कर्मों का परित्याग कर देता है तब वह नौ द्वारों वाले नगर (भौतिक शरीर) में बिना कुछ किये कराये सुखपूर्वक रहता है।

हे धनञ्जय, जब मनुष्य की बुद्धि, मन, श्रद्धा तथा शरण सब कुछ भगवान् में स्थिर हो जाते हैं, तभी वह पूर्णज्ञान द्वारा समस्त कल्मष से शुद्ध होता है और मुक्ति के पढ़ पर अग्रसर होता है, हे धनञ्जय, जो न तो प्रिय वस्तु को पाकर हर्षित होता है और न ही अप्रिय को पाकर विचलित होता है, जो स्थिर बुद्धि है, जो मोहरहित और भगवदविद्या को जानने वाला है, वह पहले से ही ब्रह्म में स्थित रहता है।

हे अर्जुन, ऐसा मुक्त पुरुष भौतिक इन्द्रियसुख की ओर आकृष्ट नहीं होता, अपितु सदैव समाधि में रहकर अपने अंतर में आनंद का अनुभव करता है, इस प्रकार स्वरूपसिद्ध व्यक्ति परब्रह्म में एकाग्रचित्त होने के कारण असीम सुख भोगता है, हे पृथापुत्र, बुद्धिमान मनुष्य दुख के कारणों में भाग नहीं लेता जो कि भौतिक इन्द्रियों के संसर्ग से उत्पन्न होते हैं, हे कुन्तीपुत्र, ऐसे भोगों का आदि तथा अंत होता है, अतः चतुर व्यक्ति उनमें आनंद नहीं लेता।

हे अर्जुन, जो क्रोध तथा समस्त भौतिक इच्छाओं से रहित है, जो स्वरूपसिद्ध, आत्मसंयमी हैं और संसिद्धि के लिए निरंतर प्रयास करते हैं, उनकी मुक्ति निकट भविष्य में निश्चित है, हे धनञ्जय, समस्त इन्द्रियविषयों को बाहर करके, दृष्टि को भौहों के मध्य में केंद्रित करके, प्राण तथा अपान वायु को नथुनों के भीतर रोककर और इस तरह मन, इन्द्रियों तथा  बुद्धि को वश में करके जो मोक्ष को लक्ष्य बनाता है वह योगी इच्छा, भय तथा क्रोध से रहित हो जाता है, जो निरंतर इस अवस्था में रहता है, वह अवश्य ही मुक्त है।

हे अर्जुन, मुझे समस्त यज्ञों तथा तपस्याओं का परम भोक्ता, समस्त लोकों तथा देवताओं का परमेश्वर एवं समस्त जीवों का उपकारी एवं हितैषी जानकर मेरे भावनामृत से पूर्ण पुरुष भौतिक दुखों से शांति लाभ करता है।

दोस्तों, आशा करता हूँ कि यह आर्टिकल आपके ज्ञान के भंडार को पहले से और बेहतर बनायेगा साथ ही आपको बुद्धजीवियों की श्रेणी

 में लेकर जायेगा, तो आज के लिए सिर्फ इतना ही, अगले आर्टिकल में हम फिर मिलेंगे, गीता अध्याय-५ के साथ, तब तक के लिए, जय हिन्द-जय भारत।

लेखक परिचय

इस वेबसाइट के संस्थापक अमित दुबे हैं, जो दिल्ली में रहते हैं, एक Youtuber & Blogger हैं, किताबें पढ़ने और जानकारियों को अर्जित करके लोगों के साथ शेयर करने के शौक के कारण सोशल मीडिया के क्षेत्र में आये हैं और एक वेबसाइट तथा दो Youtube चैनल के माध्यम से लोगों को Motivate करने तथा ज्ञान का प्रसार करने का काम कर रहे हैं।

हमारे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म

Website : www.motivemantra.com इस पर Motivational Article Publish होते हैं।

Youtube Channel (1) Motive Mantra by amit dubey इस पर Motivational Video Publish होते हैं।

Youtube Channel (2) : Knowledge Facts by amit dubey इस पर General Knowledge Video Publish होते हैं।

इन्हें भी तो पढ़ें

What Is SEO | 25 SEO Tips In Hindi

नरेंद्र मोदी ने अपनी पत्नी को क्यों छोड़ा था

रतन टाटा की जीवनी | Ratan Tata Biography In Hindi

चीन का नकली सूरज कैसा है ? | चीन ने बनाया कृत्रिम सूरज

ममता बनर्जी की जीवनी | Mamta Banerjee Biography In Hindi

हमारा यूट्यूब चैनल : Motive Mantra By Amit Dubey

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *