गीता अध्याय-१३ क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग || Operation Gita

दोस्तों, गीता अध्याय-१२ भक्तियोग के अंत में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को बताया था कि हे अर्जुन, जो इस भक्ति के अमर पथ का अनुसरण करते हैं, और जो मुझे ही अपना चरम लक्ष्य बनाकर श्रद्धा सहित पूर्णरूपेण संलग्न रहते हैं, वे भक्त मुझे अत्यधिक प्रिय हैं। इससे आगे गीता अध्याय-१३ क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग || Operation Gita में श्री कृष्ण अर्जुन से क्या कहते हैं आइये जानते हैं।

गीता अध्याय-१३ क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग || Operation Gita
गीता अध्याय-१३ क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग || Operation Gita

गीता अध्याय-१३ क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग || Operation Gita

अर्जुन उवाच

अध्याय-१३ श्लोक=१

प्रकृतिं पुरुषं चैव क्षेत्रं क्षेत्रज्ञमेव च। 

एतदेद्धितुमिच्छामि ज्ञानं ज्ञेयं च केशव।। 

भावार्थ 

अर्जुन ने श्री कृष्ण से कहा – हे केशव, मै प्रकृति और पुरुष (भोक्ता), क्षेत्र एवं क्षेत्रज्ञ तथा ज्ञान एवं ज्ञेय के विषय में जानने का इच्छुक हूँ।

श्री भगवानुवाच

अध्याय-१३ श्लोक=२ 

इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते। 

एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्धिदः।। 

भावार्थ 

भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा – हे कुन्तीपुत्र, यह शरीर क्षेत्र कहलाता है और इस क्षेत्र को जानने वाला क्षेत्रज्ञ है।

अध्याय-१३ श्लोक=३ 

क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत। 

क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम।।

भावार्थ 

हे भरतवंशी, तुम्हें ज्ञात होना चाहिए कि मै भी समस्त शरीरों में ज्ञाता भी हूँ और इस शरीर तथा इसके ज्ञाता को जान लेना ज्ञान कहलाता है, ऐसा मेरा मत है।

अध्याय-१३ श्लोक=४ 

तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्धिकारि यतश्च यत्‌। 

स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे शृणु।।

भावार्थ 

हे अर्जुन, अब तुम मुझसे यह सब संक्षेप में सुनो कि कर्मक्षेत्र क्या है, यह किस प्रकार बना है, इसमें क्या परिवर्तन होते हैं, यह कहाँ से उत्पन्न होता है, इस कर्मक्षेत्र को जानने वाला कौन है और उसके क्या प्रभाव हैं।

अध्याय-१३ श्लोक=५

ऋषिभिर्वहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक्‌। 

ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितै।।

भावार्थ 

हे पार्थ, विभिन्न वैदिक ग्रंथों में विभिन्न ऋषियों ने कार्यकलापों के क्षेत्र तथा उन कार्यकलापों के ज्ञाता के ज्ञान का वर्णन किया है, इसे विशेष रूप से वेदांत सूत्र में कार्यकारण के समस्त तर्क समेत प्रस्तुत किया गया है।

अध्याय-१३ श्लोक=६-७ 

महाभूतान्यहंकारो बुद्धिरव्यक्तमेव च। 

इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः।। 

इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं संघातश्चेतना घृतिः। 

एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम्‌।।

भावार्थ 

हे धनञ्जय, पंच महाभूत, अहंकार, बुद्धि, अव्यक्त (तीनों गुणों की अप्रकट व्यवस्था) दसों इन्द्रियाँ तथा मन, पाँच इन्द्रियविषय, इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, संघात, जीवन के लक्षण तथा धैर्य – इन सब को संक्षेप में कर्म का क्षेत्र तथा उसकी अन्तः क्रियाएँ (विकार) कहा जाता है।

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अध्याय-१३ श्लोक=८-९-१०-११-१२  

अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम्‌। 

आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः।। 

 

इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहंकार एव च। 

जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्‌।।

 

असक्तिरनभिष्वङ्ग पुत्रदारगृहादिषु। 

नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपापत्तिषु।। 

 

मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणो। 

विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि।। 

 

अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्वज्ञानार्थदर्शनम्‌। 

एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा।। 

भावार्थ 

हे अर्जुन, विनम्रता, दम्भहीनता, अहिंसा, सहिष्णुता, सरलता, प्रामाणिक गुरु के पास जाना, पवित्रता, स्थिरता, आत्मसंयम, इन्द्रियतृप्ति के विषयों का परित्याग, अहंकार का अभाव, जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था तथा रोग के दोषों की अनुभूति, वैराग्य, संतान, स्त्री, घर तथा अन्य वस्तुओं की ममता से मुक्ति, अच्छी तथा बुरी घटनाओं के प्रति समभाव, मेरे प्रति निरंतर अनन्य भक्ति, एकान्त स्थान में रहने की इच्छा, जन समूह से बिलगाव, आत्मसाक्षात्कार की महत्ता को स्वीकारना, तथा परम सत्य की दार्शनिक खोज – इन सबको मै ज्ञान घोषित करता हूँ और इनके अतिरिक्त जो भी है, वह सब अज्ञान है।

अध्याय-१३ श्लोक=१३ 

ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते। 

अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते।। 

भावार्थ 

हे कुन्तीपुत्र, अब मै तुम्हें ज्ञेय के विषय में बतलाऊँगा, जिसे जानकर तुम नित्य ब्रह्म का आस्वादन कर सकोगे, यह ब्रह्म या आत्मा, जो अनादि है और मेरे अधीन है, इस भौतिक जगत के कार्य-कारण से परे स्थित है।

अध्याय-१३ श्लोक=१४

सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्‌। 

सर्वतःश्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति।। 

भावार्थ 

हे अर्जुन, उनके हाथ, पाँव, ऑंखें, सिर तथा मुँह तथा उनके कान सर्वत्र हैं, इस प्रकार परमात्मा सभी वस्तुओं में व्याप्त होकर अवस्थित है।

 

 

अध्याय-१३ श्लोक=१५

सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम्‌। 

असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च।। 

भावार्थ  

हे महाबाहो, परमात्मा समस्त इन्द्रियों के मूल स्रोत है, फिर भी वे इन्द्रियों से रहित हैं, वे समस्त जीवों के पालनकर्ता होकर भी अनासक्त हैं, वे प्रकृति के गुणों से परे हैं, फिर भी वे भौतिक प्रकृति के समस्त गुणों के स्वामी हैं।

अध्याय-१३ श्लोक=१६ 

बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च। 

सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके तत्‌।। 

भावार्थ 

हे अर्जुन, परम सत्य जड़ तथा जंगम समस्त जीवों के बाहर तथा भीतर स्थित है, सूक्ष्म होने के कारण वे भौतिक इन्द्रियों के द्वारा जानने या देखने से परे हैं, यद्यपि वे अत्यन्त दूर रहते हैं, किन्तु हम सबों के निकट भी हैं।

अध्याय-१३ श्लोक=१७ 

अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्‌। 

भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च।।

भावार्थ 

हे पार्थ, यद्यपि परमात्मा समस्त जीवों के मध्य विभाजित प्रतीत होता है, लेकिन वह कभी भी विभाजित नहीं है, वह एक रूप में स्थित है, यद्यपि वह प्रत्येक जीव का पालनहर्ता है, लेकिन यह समझना चाहिए कि वह सबों का संहारकर्ता है और सबों को जन्म देता है।

अध्याय-१३ श्लोक=१८ 

ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते। 

ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम्‌।।

 भावार्थ  

हे धनञ्जय, वे समस्त प्रकाशमान वस्तुओं के प्रकाशस्रोत हैं, वे भौतिक प्रकाश से परे हैं और अगोचर हैं, वे ज्ञान हैं, ज्ञेय हैं और ज्ञान के लक्ष्य हैं, वे सबके ह्रदय में स्थिर हैं।

अध्याय-१३ श्लोक=१९ 

इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः। 

मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते।। 

भावार्थ 

हे कुन्तीपुत्र, इस प्रकार मैंने कर्म क्षेत्र (शरीर), ज्ञान तथा ज्ञेय का संक्षेप में वर्णन किया है, इसे केवल मेरे भक्त ही पूरी तरह समझ सकते हैं और इस तरह मेरे स्वभाव को प्राप्त होते हैं।

अध्याय-१३ श्लोक=२०

प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्धयनादी उभावपि। 

विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसंभवान्‌।। 

भावार्थ 

हे अर्जुन, प्रकृति तथा जीवों को अनादि समझना चाहिए, उनके विकार तथा गुण प्रकृतिजन्य हैं।

अध्याय-१३ श्लोक=२१ 

कार्यकारणकर्तृत्वे हेतु प्रकृतिरुच्यते। 

पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते।। 

भावार्थ 

हे महाबाहो, प्रकृति समस्त भौतिक कारणों तथा कार्यों (परिणामों) की हेतु कही जाती है, और जीव (पुरुष) इस संसार में विविध सुख-दुख के भोग का कारण कहा जाता है।

अध्याय-१३ श्लोक=२२ 

पुरुषः प्रकृतिस्ठो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजांगुणान्‌।  

कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु।। 

भावार्थ 

हे अर्जुन, इस प्रकार जीव प्रकृति के तीनों गुणों का भोग करता हुआ प्रकृति में ही जीवन बीताता है, यह उस प्रकृति के साथ उसकी संगति के कारण है, इस तरह उसे उत्तम तथा अधम योनियाँ मिलती रहती हैं।

अध्याय-१३ श्लोक=२३ 

उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः। 

परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः।। 

भावार्थ

हे पार्थ, तो भी इस शरीर में एक अन्य दिव्य भोक्ता है, जो ईश्वर है, परम स्वामी है और साक्षी तथा अनुमति देने वाले के रूप में विद्यमान है और जो परमात्मा कहलाता है।

अध्याय-१३ श्लोक=२४ 

य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह। 

सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते।। 

भावार्थ 

हे अर्जुन, जो व्यक्ति प्रकृति, जीव तथा प्रकृति के गुणों की अंतःक्रिया से सम्बंधित इस विचारधारा को समझ लेता है, उसे मुक्ति की प्राप्ति की प्राप्ति सुनिश्चित है, उसकी वर्तमान स्थिति चाहे जैसी हो, यहाँ पर उसका पुनर्जन्म नहीं होगा।

अध्याय-१३ श्लोक=२५ 

ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना। 

अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे।। 

भावार्थ 

हे पार्थ, कुछ लोग परमात्मा को ध्यान के द्वारा अपने भीतर देखते हैं, तो दूसरे लोग ज्ञान के अनुशीलन द्वारा और कुछ ऐसे हैं जो निष्काम कर्मयोग द्वारा देखते हैं।

अध्याय-१३ श्लोक=२६ 

अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते। 

तेपि चातितरन्त्येव मृत्यु श्रुतिपरायणाः।। 

भावार्थ 

हे धनञ्जय, ऐसे भी लोग हैं जो यद्यपि आध्यात्मिक ज्ञान से अवगत नहीं होते पर अन्यों से परम पुरुष के विषय में सुनकर उनकी पूजा करने लगते हैं, ये लोग भी प्रामाणिक पुरुषों से श्रवण करने की मनोवृति होने के कारण जन्म तथा मृत्यु के पथ को पार कर जाते हैं।

अध्याय-१३ श्लोक=२७ 

यावतसञ्जायते किञ्चितसत्त्वं स्थावरजङ्गमम्‌। 

क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ।।  

भावार्थ 

हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ, यह जान लो कि चर तथा अचर जो भी तुम्हें अस्तित्व में दिख रहा है, वह कर्मक्षेत्र तथा क्षेत्र के ज्ञाता का संयोग मात्र है।

अध्याय-१३ श्लोक=२८ 

समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्‌। 

विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति।। 

भावार्थ 

हे कुन्तीपुत्र, जो परमात्मा को समस्त शरीरों में आत्मा के साथ देखता है और जो यह समझता है कि इस नश्वर शरीर के भीतर न तो आत्मा, न ही परमात्मा कभी विनष्ट होता है, वही वास्तव में देखता है।

अध्याय-१३ श्लोक=२९

समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्‌। 

न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम्।। 

भावार्थ 

हे अर्जुन, जो व्यक्ति परमात्मा को सर्वत्र तथा प्रत्येक जीव में समान रूप से वर्तमान देखता है, वह अपने मन के द्वारा अपने आपको भ्रष्ट नहीं करता, इस प्रकार वह दिव्य गंतव्य को प्राप्त करता है।

अध्याय-१३ श्लोक=३० 

प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः। 

यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति।। 

 भावार्थ 

हे अर्जुन, जो यह देखता है कि सारे कार्य शरीर द्वारा संपन्न किये जाते हैं, जिसकी उत्पत्ति प्रकृति से हुई है, और जो देखता है कि आत्मा कुछ भी नहीं करता, वही यथार्थ में देखता है।

अध्याय-१३ श्लोक=३१ 

यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति। 

तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा।।

भावार्थ 

हे पार्थ, जब विवेकवान व्यक्ति विभिन्न भौतिक शरीरों के कारण विभिन्न शरीरों को देखना बंद कर देता  है, और यह देखता है कि किस प्रकार से जीव सर्वत्र फैले हुए हैं, तो वह ब्रह्म-बोध को प्राप्त होता है।

अध्याय-१३ श्लोक=३२

अनादित्वान्निर्गुँणत्वात्परमात्मायमव्ययः। 

शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते।। 

भावार्थ

हे धनञ्जय, शाश्वत दृष्टिसम्पन्न लोग यह देख सकते हैं कि अविनाशी आत्मा दिव्य, शाश्वत तथा गुणों से अतीत है। हे अर्जुन, भौतिक शरीर के साथ संपर्क होते हुए भी आत्मा न तो कुछ करता है और न लिप्त होता है।

अध्याय-१३ श्लोक=३३ 

यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते। 

सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते।। 

भावार्थ 

हे कुन्तीपुत्र, यद्यपि आकाश सर्वव्यापी है, किन्तु अपनी सूक्ष्म प्रकृति के कारण, किसी वस्तु से लिप्त नहीं होता, इसी तरह ब्रह्मदृष्टि में स्थित आत्मा, शरीर में स्थिर रहते हुए भी, शरीर से लिप्त नहीं होता।

अध्याय-१३ श्लोक=३४ 

यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः। 

क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत।। 

भावार्थ 

हे भरतपुत्र, जिस प्रकार सूर्य अकेले इस सारे ब्राह्मण को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार शरीर के भीतर स्थित एक आत्मा सारे शरीर को चेतना से प्रकाशित करता है।

अध्याय-१३ श्लोक=३५

क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा। 

भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम्।। 

भावार्थ 

हे अर्जुन, जो लोग ज्ञान के चक्षुओं से शरीर तथा शरीर के ज्ञाता के अन्तर को देखते हैं और भव-बंधन से मुक्ति की विधि को भी जानते हैं, उन्हें परम लक्ष्य प्राप्त होता है।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायांयोगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योगो नाम त्रयोदशोध्यायः समाप्त॥

इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद्भगवद्गीता के श्री कृष्ण-अर्जुन संवाद में क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग नाम का तेरहवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ।

।। हरिः ॐ तत् सत्।।

सारांश

दोस्तों, गीता अध्याय-१३ क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग || Operation Gita में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के बारे में विस्तार पूर्वक बतलाया है जिसमे क्षेत्र को शरीर और क्षेत्रज्ञ को शरीर अर्थात जीवात्मा को जानने वाला बताया गया है।

जब अर्जुन ने श्री कृष्ण से कहा – हे केशव, मै प्रकृति और पुरुष (भोक्ता), क्षेत्र एवं क्षेत्रज्ञ तथा ज्ञान एवं ज्ञेय के विषय में जानने का इच्छुक हूँ। इस बात पर भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा – हे कुन्तीपुत्र, यह शरीर क्षेत्र कहलाता है और इस क्षेत्र को जानने वाला क्षेत्रज्ञ है। हे भरतवंशी, तुम्हें ज्ञात होना चाहिए कि मै भी समस्त शरीरों में ज्ञाता भी हूँ और इस शरीर तथा इसके ज्ञाता को जान लेना ज्ञान कहलाता है, ऐसा मेरा मत है।

हे अर्जुन, अब तुम मुझसे यह सब संक्षेप में सुनो कि कर्मक्षेत्र क्या है, यह किस प्रकार बना है, इसमें क्या परिवर्तन होते हैं, यह कहाँ से उत्पन्न होता है, इस कर्मक्षेत्र को जानने वाला कौन है और उसके क्या प्रभाव हैं। हे पार्थ, विभिन्न वैदिक ग्रंथों में विभिन्न ऋषियों ने कार्यकलापों के क्षेत्र तथा उन कार्यकलापों के ज्ञाता के ज्ञान का वर्णन किया है, इसे विशेष रूप से वेदांत सूत्र में कार्यकारण के समस्त तर्क समेत प्रस्तुत किया गया है।

हे धनञ्जय, पंच महाभूत, अहंकार, बुद्धि, अव्यक्त (तीनों गुणों की अप्रकट व्यवस्था) दसों इन्द्रियाँ तथा मन, पाँच इन्द्रियविषय, इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, संघात, जीवन के लक्षण तथा धैर्य – इन सब को संक्षेप में कर्म का क्षेत्र तथा उसकी अन्तः क्रियाएँ (विकार) कहा जाता है।

हे अर्जुन, विनम्रता, दम्भहीनता, अहिंसा, सहिष्णुता, सरलता, प्रामाणिक गुरु के पास जाना, पवित्रता, स्थिरता, आत्मसंयम, इन्द्रियतृप्ति के विषयों का परित्याग, अहंकार का अभाव, जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था तथा रोग के दोषों की अनुभूति, वैराग्य, संतान, स्त्री, घर तथा अन्य वस्तुओं की ममता से मुक्ति, अच्छी तथा बुरी घटनाओं के प्रति समभाव, मेरे प्रति निरंतर अनन्य भक्ति, एकान्त स्थान में रहने की इच्छा, जन समूह से बिलगाव, आत्मसाक्षात्कार की महत्ता को स्वीकारना, तथा परम सत्य की दार्शनिक खोज – इन सबको मै ज्ञान घोषित करता हूँ और इनके अतिरिक्त जो भी है, वह सब अज्ञान है। 

हे कुन्तीपुत्र, अब मै तुम्हें ज्ञेय के विषय में बतलाऊँगा, जिसे जानकर तुम नित्य ब्रह्म का आस्वादन कर सकोगे, यह ब्रह्म या आत्मा, जो अनादि है और मेरे अधीन है, इस भौतिक जगत के कार्य-कारण से परे स्थित है। हे अर्जुन, उनके हाथ, पाँव, ऑंखें, सिर तथा मुँह तथा उनके कान सर्वत्र हैं, इस प्रकार परमात्मा सभी वस्तुओं में व्याप्त होकर अवस्थित है।

हे महाबाहो, परमात्मा समस्त इन्द्रियों के मूल स्रोत है, फिर भी वे इन्द्रियों से रहित हैं, वे समस्त जीवों के पालनकर्ता होकर भी अनासक्त हैं, वे प्रकृति के गुणों से परे हैं, फिर भी वे भौतिक प्रकृति के समस्त गुणों के स्वामी हैं। हे अर्जुन, परम सत्य जड़ तथा जंगम समस्त जीवों के बाहर तथा भीतर स्थित है, सूक्ष्म होने के कारण वे भौतिक इन्द्रियों के द्वारा जानने या देखने से परे हैं, यद्यपि वे अत्यन्त दूर रहते हैं, किन्तु हम सबों के निकट भी हैं। 

हे पार्थ, यद्यपि परमात्मा समस्त जीवों के मध्य विभाजित प्रतीत होता है, लेकिन वह कभी भी विभाजित नहीं है, वह एक रूप में स्थित है, यद्यपि वह प्रत्येक जीव का पालनहर्ता है, लेकिन यह समझना चाहिए कि वह सबों का संहारकर्ता है और सबों को जन्म देता है।हे धनञ्जय, वे समस्त प्रकाशमान वस्तुओं के प्रकाशस्रोत हैं, वे भौतिक प्रकाश से परे हैं और अगोचर हैं, वे ज्ञान हैं, ज्ञेय हैं और ज्ञान के लक्ष्य हैं, वे सबके ह्रदय में स्थिर हैं।

हे कुन्तीपुत्र, इस प्रकार मैंने कर्म क्षेत्र (शरीर), ज्ञान तथा ज्ञेय का संक्षेप में वर्णन किया है, इसे केवल मेरे भक्त ही पूरी तरह समझ सकते हैं और इस तरह मेरे स्वभाव को प्राप्त होते हैं। हे अर्जुन, प्रकृति तथा जीवों को अनादि समझना चाहिए, उनके विकार तथा गुण प्रकृतिजन्य हैं। हे महाबाहो, प्रकृति समस्त भौतिक कारणों तथा कार्यों (परिणामों) की हेतु कही जाती है, और जीव (पुरुष) इस संसार में विविध सुख-दुख के भोग का कारण कहा जाता है।

 

हे अर्जुन, इस प्रकार जीव प्रकृति के तीनों गुणों का भोग करता हुआ प्रकृति में ही जीवन बीताता है, यह उस प्रकृति के साथ उसकी संगति के कारण है, इस तरह उसे उत्तम तथा अधम योनियाँ मिलती रहती हैं। हे पार्थ, तो भी इस शरीर में एक अन्य दिव्य भोक्ता है, जो ईश्वर है, परम स्वामी है और साक्षी तथा अनुमति देने वाले के रूप में विद्यमान है और जो परमात्मा कहलाता है।

हे अर्जुन, जो व्यक्ति प्रकृति, जीव तथा प्रकृति के गुणों की अंतःक्रिया से सम्बंधित इस विचारधारा को समझ लेता है, उसे मुक्ति की प्राप्ति की प्राप्ति सुनिश्चित है, उसकी वर्तमान स्थिति चाहे जैसी हो, यहाँ पर उसका पुनर्जन्म नहीं होगा। हे पार्थ, कुछ लोग परमात्मा को ध्यान के द्वारा अपने भीतर देखते हैं, तो दूसरे लोग ज्ञान के अनुशीलन द्वारा और कुछ ऐसे हैं जो निष्काम कर्मयोग द्वारा देखते हैं।

हे धनञ्जय, ऐसे भी लोग हैं जो यद्यपि आध्यात्मिक ज्ञान से अवगत नहीं होते पर अन्यों से परम पुरुष के विषय में सुनकर उनकी पूजा करने लगते हैं, ये लोग भी प्रामाणिक पुरुषों से श्रवण करने की मनोवृति होने के कारण जन्म तथा मृत्यु के पथ को पार कर जाते हैं। हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ, यह जान लो कि चर तथा अचर जो भी तुम्हें अस्तित्व में दिख रहा है, वह कर्मक्षेत्र तथा क्षेत्र के ज्ञाता का संयोग मात्र है।

हे कुन्तीपुत्र, जो परमात्मा को समस्त शरीरों में आत्मा के साथ देखता है और जो यह समझता है कि इस नश्वर शरीर के भीतर न तो आत्मा, न ही परमात्मा कभी विनष्ट होता है, वही वास्तव में देखता है। हे अर्जुन, जो व्यक्ति परमात्मा को सर्वत्र तथा प्रत्येक जीव में समान रूप से वर्तमान देखता है, वह अपने मन के द्वारा अपने आपको भ्रष्ट नहीं करता, इस प्रकार वह दिव्य गंतव्य को प्राप्त करता है।

 

हे अर्जुन, जो यह देखता है कि सारे कार्य शरीर द्वारा संपन्न किये जाते हैं, जिसकी उत्पत्ति प्रकृति से हुई है, और जो देखता है कि आत्मा कुछ भी नहीं करता, वही यथार्थ में देखता है, हे पार्थ, जब विवेकवान व्यक्ति विभिन्न भौतिक शरीरों के कारण विभिन्न शरीरों को देखना बंद कर देता  है, और यह देखता है कि किस प्रकार से जीव सर्वत्र फैले हुए हैं, तो वह ब्रह्म-बोध को प्राप्त होता है।

हे धनञ्जय, शाश्वत दृष्टिसम्पन्न लोग यह देख सकते हैं कि अविनाशी आत्मा दिव्य, शाश्वत तथा गुणों से अतीत है। हे अर्जुन, भौतिक शरीर के साथ संपर्क होते हुए भी आत्मा न तो कुछ करता है और न लिप्त होता है। हे कुन्तीपुत्र, यद्यपि आकाश सर्वव्यापी है, किन्तु अपनी सूक्ष्म प्रकृति के कारण, किसी वस्तु से लिप्त नहीं होता, इसी तरह ब्रह्मदृष्टि में स्थित आत्मा, शरीर में स्थिर रहते हुए भी, शरीर से लिप्त नहीं होता।

हे भरतपुत्र, जिस प्रकार सूर्य अकेले इस सारे ब्राह्मण को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार शरीर के भीतर स्थित एक आत्मा सारे शरीर को चेतना से प्रकाशित करता है।  हे अर्जुन, जो लोग ज्ञान के चक्षुओं से शरीर तथा शरीर के ज्ञाता के अन्तर को देखते हैं और भव-बंधन से मुक्ति की विधि को भी जानते हैं, उन्हें परम लक्ष्य प्राप्त होता है।

दोस्तों, आशा करता हूँ कि यह आर्टिकल गीता अध्याय-१३ क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग || Operation Gita आपके ज्ञान के भंडार को पहले से और बेहतर बनायेगा साथ ही आपको बुद्धजीवियों की श्रेणी में लेकर जायेगा, तो आज के लिए सिर्फ इतना ही, अगले आर्टिकल में हम फिर मिलेंगे, गीता अध्याय-१४ के साथ, तब तक के लिए, जय हिन्द-जय भारत

लेखक परिचय

इस वेबसाइट के संस्थापक अमित दुबे हैं, जो दिल्ली में रहते हैं, एक Youtuber & Blogger हैं, किताबें पढ़ने और जानकारियों को अर्जित करके लोगों के साथ शेयर करने के शौक के कारण सोशल मीडिया के क्षेत्र में आये हैं और एक वेबसाइट तथा दो Youtube चैनल के माध्यम से लोगों को Motivate करने तथा ज्ञान का प्रसार करने का काम कर रहे हैं।

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