दौपर युग में हस्तिनापुर के राजघराने की लड़ाई के समय कुरुक्षेत्र के मैदान में एक तरफ कौरव तो दूसरे तरफ पांडव दोनों तरफ की सेनाएं युद्ध के लिए तैयार हैं, उधर हस्तिनापूर के राजमहल में बैठे धृतराष्ट्र युद्ध स्थल के बारे में अपने सारथी संजय से ताजी जानकारी मांग रहे हैं और संजय धृतराष्ट्र को युद्ध स्थल की जानकारी देते हैं और वह जानकारी क्या है आइये जानते हैं > गीता अध्याय-१ अर्जुन विषाद योग (कुरुक्षेत्र में युद्ध की तैयारी)
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गीता अध्याय-१ अर्जुन विषाद योग (कुरुक्षेत्र में युद्ध की तैयारी)
धृतराष्ट्र-संजय वार्तालाप
धृतराष्ट्र कहते हैं – हे संजय! कुरुक्षेत्र के मैदान में युद्ध की इच्छा से इकट्ठा हुए मेरे और पाण्डु पुत्रों के बीच क्या चल रहा है ? इस पर संजय बताते हैं कि…..
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दुर्योधन-द्रोणाचार्य वार्तालाप
कौरव और पांडवों की सेनाओं का शंख गर्जना
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श्रीकृष्ण-अर्जुन वार्तालाप
अध्याय-1 = श्लोक-20
अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजः।
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः॥
अध्याय-1 = श्लोक-21
ऋषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते।
सेनयोरूभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत॥
भावार्थ
हे राजन! इसके बाद हनुमान से अंकित पताका लगे रथ पर आसीन पाण्डु पुत्र अर्जुन ने धनुष उठाकर तीर चलाने की तैयारी के समय धृतराष्ट्र के पुत्रों को देखकर ह्रदय के सर्वस्व ज्ञाता श्री कृष्ण से प्रार्थना करते हुए कहा कि हे अच्युत कृपा करके मेरे रथ को दोनों सेनाओ के बीच में खड़ा करें।
अध्याय-1 = श्लोक-22
यवदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान्।
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे॥
भावार्थ
जिससे मै युद्धभूमि में उपस्थित युद्ध की इच्छा रखने वालों को देख सकूँ की मुझे इस युद्ध में किन किन के साथ युद्ध करना है।
अध्याय-1 = श्लोक-23
योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः।
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः॥
भावार्थ
मै उनको भी देख सकूँ जो यह राजा लोग यहाँ पर धृतराष्ट्र के दुर्बुद्धि पुत्र दुर्योधन के हित की इच्छा से युद्ध करने के लिए एकत्रित हुए हैं।
संजय उवाच
अध्याय-1 = श्लोक-24
एवमुक्तो ऋषिकेशो गुडाकेशेन भारतम्।
सेनयोरूभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्॥
भावार्थ
संजय ने कहा – हे भरतवंशी! अर्जुन द्वारा इस प्रकार पर कहे जाने पर ह्रदय के पूर्ण ज्ञाता श्री कृष्ण ने दोनों सेनाओं के बीच में उस उत्तम रथ को खड़ा कर दिया।
अध्याय-1 = श्लोक-25
भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्।
उवाच पार्थ पश्यैतान् समवेतान् कुरुनिति॥
भावार्थ
इस प्रकार भीष्म पितामह, आचार्य द्रोण तथा संसार के सभी राजाओं के सामने कहा कि हे पार्थ युद्ध के लिए एकत्रित हुए इन सभी कुरुवंश के सदस्यों को देख।
अध्याय-1 = श्लोक-26
तत्रा पश्यत्स्थितान् पार्थः पितृनथ पितामहान्।
आचार्यान्मा तुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा॥
भावार्थ
वहाँ पृथा पुत्र अर्जुन ने अपने ताऊओं चाचाओं को, दादों परदादों कोगुरुओं को, मामाओं को, भाइयों को, पुत्रों को, पौत्रों को और मित्रों को देखा।
अध्याय-1 = श्लोक-27
श्वशुरान सुहदश्रैव सेनयोरुभयोरपि।
तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान् बंधूनवस्थितान्॥
भावार्थ
कुंती पुत्र अर्जुन ने ससुरों को और शुभचिंतकों सहित दोनों तरफ की सेनाओं में अपने ही सगे – सम्बन्धियों को देखा।
श्री कृष्ण अर्जुन वार्तालाप
अर्जुन उवाच
अध्याय-1 = श्लोक-28
कृपया परयाविष्टो विषीदत्रिदमब्रवीत्।
दृष्टेवमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्॥
भावार्थ
तब करुणा से अभिभूत होकर शोक करते हुए अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण युद्ध की इच्छा वाले इन सभी मित्रों तथा सम्बन्धियों को उपस्थित देखकर।
अध्याय-1 = श्लोक-29
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति।
वेपयुश्च शरीरे में रोमहर्षश्च जयते॥
भावार्थ
मेरे शरीर के सभी अंग काँप रहे हैं और मुख सूखा जा रहा है और मेरे शरीर के कंपन से रोमांच उपन्न हो रहा है।
अध्याय-1 = श्लोक-30
गांडीव स्रंसते हस्तात्वक्चैव परिदह्यते ।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च में मनः॥
भावार्थ
मेरे हाथ से गांडीव धनुष छूट रहा है और त्वचा भी जल रही है, मेरा मन भ्रमित सा हो रहा है, इसलिए मै खड़ा भी नहीं रह पा रहा हूँ।
अध्याय-1 = श्लोक-31
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ॥
भावार्थ
हे केशव! मुझे तो सिर्फ अशुभ लक्षण ही दिखाई दे रहे हैं, युद्ध में स्वजनों को मारने में मुझे कोई कल्याण दिखाई नहीं देता है।
अध्याय-1 = श्लोक-32
न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च।
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा॥
भावार्थ
हे कृष्ण! मै न तो विजय चाहता हूँ और न न ही राज्य और सुखों की इच्छा करता हूँ, हे गोविन्द हम ऐसे राज्य, सुख अथवा इस जीवन से भी क्या लाभ है।
अध्याय-1 = श्लोक-33
येषामर्थे काङक्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च।
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च॥
भावार्थ
जिनके साथ हमें राज्य आदि सुखों को भोगने की इच्छा है, जब वह ही अपने जीवन के सभी सुखों को त्याग करके इस युद्धभूमि में खड़े हैं।
अध्याय-1 = श्लोक-34
आचार्या: पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः।
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः संबंधिनस्तथा॥
भावार्थ
गुरुजन, परिवारीजन, पुत्रगण, पितामह, मामा, ससुर, पौत्रगण, साले और सभी सम्बन्धी भी मेरे सामने खड़े हैं।
अध्याय-1 = श्लोक-35
एत्रात हन्तुमिच्छामि घ्नतोपि मधुसूदन।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते॥
भावार्थ
हे मधुसूदन !मै इन सब को मारना नहीं चाहता हूँ, भले ही यह सभी मुझे ही मार डालें, तीनों लोकों के राज्य के लिए भी मै इन सभी को मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वी के लिए तो कहना ही क्या है।
अध्याय-1 = श्लोक-36
निहत्य धार्तराष्ट्रत्र का प्रीतिः स्याज्जनार्दन।
पापमेवाश्रयेदस्मान् हत्वैतानाततायिनः॥
भावार्थ
हे जनार्दन! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें कौन सी प्रसन्नता मिलेगी, बल्कि इन आततायियों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा।
अध्याय-1 = श्लोक-37
तस्मात्रार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान्।
स्वजनं ही कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव॥
भावार्थ
हे माधव! अतः मुझे धृतराष्ट्र के पुत्रों को उनके मित्रों और सम्बन्धियों सहित मारना उचित नहीं लगता है, क्योंकि अपने ही कुटुम्बियों को मारकर हम कैसे सुखी हो सकते हैं।
अध्याय-1 = श्लोक-38
यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रदोहे च पातकम्॥
भावार्थ
यद्यपि लोभ के कारण इन भ्रमित चित्त वालों को कुल के नाश उत्पन्न होने वाले दोष दिखाई नहीं देते हैं, और मित्रों से विरोध करने में कोई पाप दिखाई नहीं देता है।
अध्याय-1 = श्लोक-39
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पपादस्मात्रिवर्तितुम्।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन॥
भावार्थ
हे जनार्दन! हम लोग तो कुल के नाश से उत्पन्न दोष को समझने वाले हैं, क्यों न हमें इस पाप से बचने के लिए विचार करना चाहिए।
अध्याय-1 = श्लोक-40
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः।
धर्म नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत॥
भावार्थ
कुल के नाश से सनातन कुल-धर्म नष्ट हो जाते हैं, तथा धर्म का नाश हो जाने पर सम्पूर्ण कुल में अधर्म फ़ैल जाता है।
अध्याय-1 = श्लोक-41
अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः।
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते सर्वशङ्करः॥
भावार्थ
हे कृष्ण! अधर्म अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियाँ दूषित हो जाती हैं, स्त्रियों के दूषित हो जाने पर अवांछित संताने उत्पन्न होती हैं।
अध्याय-1 = श्लोक-42
संकरो नरकायैव कुलघ्रानां कुलस्य च।
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः॥
भावार्थ
अवांछित संतानों की वृद्धि से निश्चय ही कुल में नारकीय जीवन उत्पन्न होता है, ऐसे पतित कुलों के पृत गिर जाते हैं,क्योंकि पिण्ड और जल की क्रियाएं समाप्त हो जाती हैं।
अध्याय-1 = श्लोक-43
दोषैरेतैः कुलघ्रानां वर्णशंकरकारकैः।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः॥
भावार्थ
इन अवांछित संतानों के दुष्कर्मों से सनातन कुल-धर्म और जाती-धर्म नष्ट हो जाते हैं।
अध्याय-1 = श्लोक-44
उत्सत्रकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन।
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम॥
भावार्थ
हे जनार्दन! जिनका कुलधर्म नष्ट हो गया है, ऐसे मनुष्यों को अनिश्चितकाल तक नरक में रहना पड़ता है, ऐसा हम सुनते आये हैं।
अध्याय-1 = श्लोक-45
अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः॥
भावार्थ
ओह, कितने आश्चर्य की बात है कि हम लोग बुद्धिमान होकर भी महा पाप करने को तैयार हो गए हैं, राज्य और सुख के लोभ से अपने प्रियजनों को मारने के लिए आतुर हो गए हैं।
अध्याय-1 = श्लोक-46
यदि मामप्रतिकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्॥
भावार्थ
यदि मुझ शस्त्र-रहित विरोध न करने वाले को, धृतराष्ट्र के पुत्र हाथ में शस्त्र लेकर युद्ध में मार डालें तो भी इस प्रकार मरना मेरे लिए अधिक श्रेयष्कर होगा।
संजय उवाच
अध्याय-1 = श्लोक-47
एवमुक्त्वार्जुनः सङ्ख्ये रथोपस्थ उपविशत्।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्रमानसः॥
भावार्थ
संजय ने कहा – इस प्रकार शोक से संतप्त मन वाला अर्जुन युद्धभूमि में यह कहकर वाणों सहित धनुष को त्यागकर रथ के पिछले भाग में बैठ गया।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे अर्जुनविषाद योगो नाम प्रथमोध्यायः समाप्त।
इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद्भगवद्गीता के श्री कृष्ण-अर्जुन संवाद में अर्जुनविषाद योग नाम का पहला अध्याय सम्पूर्ण हुआ।
।। हरिः ॐ तत् सत्।।
सारांश
श्री मद्भगवद्गीता के पहले श्लोक की शुरुआत धृतराष्ट्र के उस सवाल से शुरू होता है जिसमें उन्होंने अपने सारथी संजय से कुरुक्षेत्र के मैदान में होने वाले युद्ध की तैयारी के बारे में पूछा कि मेरे और पाण्डु पुत्रों के बीच क्या चल रहा है, इस पर संजय बताते हैं कि युवराज दुर्योधन किस तरह गुरु द्रोणाचार्य के पास जाकर दोनों तरफ की सेनाओं के क्षमता का अवलोकन कर रहे हैं।
इसके बाद संजय यह भी बताते हैं कि कैसे अर्जुन के कहने पर श्री कृष्ण अपनी रथ को दोनों सेनाओं के मध्य ले जाकर खड़ा कर देते हैं और उसके बाद जैसे ही अर्जुन अपने सामने भीष्म पितामह, गुरु द्रोणाचार्य, कृपाचार्य समेत उन तमाम सगे सम्बन्धियों को युद्ध के लिए खड़ा पाते हैं तो मोह-माया के बंधन का हवाला देकर युद्ध करने से पीछे हट जाते हैं।
अर्जुन कहते हैं कि मै भीष्म पितामह को कैसे मार सकता हूँ जिन्होंने उंगली पकड़कर मुझे चलना सिखाया, मै गुरु द्रोणाचार्य को कैसे मार सकता हूँ जिन्होंने मुझे शस्त्र विद्या सिखाया या फिर धृतराष्ट्र के पुत्रों को भी मै कैसे मार सकता हूँ, इसके अलावा हमारे सामने चाचा, ताऊ, मामा, फूफा, आदि समेत ऐसे बहुत सारे लोग खड़े हैं जो सभी कहीं ना कहीं हमारे अपने ही तो है, आखिर मै उन सबको कैसे मार सकता हूँ।
अर्जुन कहते हैं कि हे कृष्ण मै यह पाप नहीं कर सकता, मैंने सुना है कि इससे कुल की स्त्रियां दूषित हो जाती हैं, जिससे अवांछनीय संताने उत्पन्न होती है, परिणामतः सनातन कुल-धर्म और जाति-धर्म नष्ट हो जाते हैं, कुल-धर्म के नष्ट होने से मनुष्यों को नारकीय जीवन मिलता है।
अर्जुन कहते हैं कि हे केशव, यह कितने आश्चर्य कि बात है कि हम लोग सब कुछ जानते हुए भी ऐसे महा पाप को करने को तैयार हैं, मुझसे यह सब नहीं होगा, चाहे धृतराष्ट्र के पुत्र भले ही मेरा वध करदें लेकिन मै उनका वध नहीं कर पाऊँगा।
हे केशव – मेरे हाँथ-पाँव काँप रहे हैं, मुझसे खड़ा भी नहीं हुआ जा रहा है, मेरे हाथ से मेरा गांडीव छूटा जा रहा है, यह कहते होते अर्जुन अपना धनुष-बाण त्यागते हुए रथ के पिछले हिस्से में जाकर बैठ जाते हैं।
दोस्तों, आशा करता हूँ कि यह आर्टिकल आपके ज्ञान के भंडार को पहले से और बेहतर बनायेगा साथ ही आपको बुद्धजीवियों की श्रेणी में लेकर जायेगा, तो आज के लिए सिर्फ इतना ही, अगले आर्टिकल में हम फिर मिलेंगे, किसी नए टॉपिक के साथ, तब तक के लिए, जय हिन्द-जय भारत।
लेखक परिचय
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