परशुराम अवतार (भगवान विष्णु का छठवाँ अवतार)

परशुराम अवतार भगवान विष्णु का छठवाँ अवतार होता है, यह अवतार भगवान ने क्षत्रियों के बढ़ते अहंकार और अत्याचार का नाश करने के लिये लिया था, लेकिन ऐसा क्या कर दिया था क्षत्रियों ने कि भगवान विष्णु को उनके विनाश के लिये पृथ्वी पर ब्राह्मण के रूप में जन्म लेना पड़ा, आइये इस आर्टिकल के माध्यम से भगवान नारायण के इस अवतार के बारे में गहराई से जानते हैं > परशुराम अवतार (भगवान विष्णु का छठवाँ अवतार)

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परशुराम अवतार (भगवान विष्णु का छठवाँ अवतार)
परशुराम अवतार (भगवान विष्णु का छठवाँ अवतार)

परशुराम अवतार (भगवान विष्णु का छठवाँ अवतार)

गीता के अध्याय 4 के श्लोक 7 और 8 में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा है कि…..

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। 

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्‌।। (7)

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्‌।

धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।। (8)

भावार्थ

हे भरतवंशी, जब भी और जहाँ भी धर्म का पतन होता है और अधर्म की प्रधानता होने लगती है तब तब मै अवतार लेता हूँ।

हे अर्जुन, भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मै हर युग में प्रकट होता हूँ।

भक्तों, गीता का यह श्लोक हालाँकि महाभारत के युद्ध के दौरान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा था, लेकिन इससे पहले भी विष्णु भगवान ने यह श्लोक बहुत बार बोला है, विष्णु पुराण में भगवान ने कहा है कि जब-जब पृथ्वी पर अधर्म धर्म पर हावी होने लगेगा तब-तब मै अवतार लूंगा और धर्म की रक्षा करूँगा।

अपने इसी प्रण को पूरा करने के लिए भगवान विष्णु ने पहला अवतार मत्स्य का अर्थात मछली का, दूसरा अवतार कूर्म अर्थात कछुए का, तीसरा अवतार वराह अर्थात (शरीर मानव का+सिर सूअर का) चौथा अवतार नरसिंह अर्थात (शरीर मानव+सिर शेर का) तथा पाँचवाँ अवतार वामन अवतार जो पूर्ण मानव रूप में लेते हैं, जिसके बारे में हमने इससे पहले के आर्टिकल में आपको बताया है, इसके बाद भगवान पृथ्वी की रक्षा के लिए अपना छठवाँ अवतार परशुराम अवतार लेते हैं जिसके बारे में हम आपको इस आर्टिकल में बताने जा रहे हैं, तो आइये आगे बढ़ते हैं और जानते हैं भगवान विष्णु के छठवें अवतार परशुराम अवतार के बारे में….

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भगवान विष्णु ने परशुराम अवतार क्यों लिया ?

Parshuram Avatar

परशुराम अवतार भगवान विष्णु के 10 अवतार में से छठवाँ अवतार होता है, जो कि भगवान शिव और विष्णु का संयुक्त अवतार माना जाता है, जिसमें भगवान शिव से संहार और भगवान विष्णु से उन्होंने पालक के गुण प्राप्त किये, और यह अवतार उन्हें इसलिए लेना पड़ता है कि जिन क्षत्रियों के हाथ में ईश्वर ने राजसी सत्ता को सँभालने का कार्यभार सौंपा था वही क्षत्रिय अब उसका दुरूपयोग करने लगे थे।

पुराणों के अनुसार यह माना जाता है कि जब राक्षसों ने क्षत्रिय रूप धारण करके पृथ्वी पर जन्म लिया और अपने शक्तियों के अहंकार के नशे में चूर होकर प्रजा पर अत्याचार करने लगे, और ब्राह्मणों का अनादर करने लगे तब भगवान विष्णु ने पृथ्वी पर आवेशावतार ब्राह्मण के रूप में अपना छठवाँ अवतार लिया जिसे परशुराम अवतार के नाम से जाना जाता है।

इस अवतार में भगवान परशुराम ने क्षत्रियों का विनाश करने के लिए 10 वर्षों तक हिमालय पर भगवान शिव से शक्तियाँ प्राप्त करने के उद्देश्य से कठोर तपस्या की, तत्पश्चात भगवान शिव उनसे अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्हें अपना शिव धनुष और एक परशा भेंट किया और उन्हें राम से परशुराम का नाम दिया, क्योंकि इससे पहले उनका नाम राम था जो कि परशे के प्राप्त होने के बाद परशुराम हो गया।

भगवान शिव द्वारा परशुराम को दिया गया धनुष बाद में उन्होंने राजा जनक को भेंट की, और परशा परशुराम का मुख्य अस्त्र बना जिसके द्वारा वे अपने शत्रुओं को मौत के घाट उतारते थे, उसी परशे से अपने पिता की आज्ञा पर परशुराम ने अपनी माता का सिर काट दिया था।

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भगवान परशुराम के जीवन की कहानी

Image Source : IndiaDivine.org
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भगवान परशुराम का जन्म ब्राह्मण ऋषि जमदग्नि के घर में हुआ था, उनकी माता का नाम रेणुका था जो एक अति सुन्दर क्षत्राणी राजकुमारी थीं, बचपन में ही क्षत्रिय राजा सहस्त्रार्जुन के अत्याचार को देखते हुए उनके मन में क्षत्रियों के प्रति ईर्ष्या की भावना पनप गयी थी, जिसके कारण वे खुद को शक्तिशाली बनाने के प्रयास में लग गए थे।

उनके पिता ऋषि जमदग्नि उन्हें भी अपनी तरह ही एक ज्ञानी ऋषि बनाना चाहते थे, परन्तु वे एक योद्धा बनना चाहते थे, क्योंकि उन्हें बड़ा होकर ब्राह्मणों के विरुद्ध अत्याचार करने वाले क्षत्रियों से एक बड़ी लड़ाई लड़नी थी।

इसलिए परशुराम भगवान शिव के पास कैलाश पर्वत जाते हैं और उनसे शक्ति प्राप्त करने की आग्रह करते हैं, भगवान शिव की आज्ञा से वे हिमालय पर्वत पर 10 वर्षों तक एक हिमकुंड में कठोर तपस्या करते हैं।

10 वर्षों की कठोर तपस्या के बाद भगवान शिव उन पर अति प्रसन्न होकर उन्हें अपना शिव धनुष और एक परशा भेंट में देते हैं और साथ में उन्हें एक नया नाम परशुराम देते है, क्योंकि उनका पहले का नाम राम होता है, अब जब उनके पास भगवान शिव द्वारा परशा दिया गया तो उनका नाम परशुराम हो गया था।

परशुराम 10 वर्षों की तपस्या के पश्चात् जब अपने घर को वापिस आते हैं तो वहाँ रास्ते के जंगल में ही उन्हें उनके पिता मिलते हैं जहाँ से उन्हें एक नई समस्या का सामना करना पड़ता है, और वह समस्या थी उनके पिता जमदग्नि द्वारा अपनी पत्नी रेणुका के चरित्र पर शक करने की जिसके कारण उनके पिता उनसे एक वचन लेते हैं कि हे पुत्र परशुराम मै एक बहुत बड़े तनाव का सामना कर रहा हूँ, इस पर परशुराम ने उन्हें वचन दिया कि पिता श्री आप आज्ञा करें, मै आपको वचन देता हूँ कि आप जो कहेंगे मै उस वचन को पूरा करूँगा।

परशुराम ने बिना यह जाने कि उन्हें क्या करना है, अपने पिता को वचन दे देते हैं, उसके बाद उनके पिता उन्हें घर लेकर जाते हैं, और परशुराम से कहते हैं कि बेटा परशुराम तुमने जो वचन मुझे दिया है अब उसको पूरा करने का समय आ गया है, और उस वचन को पूरा करने के लिए तुम्हें अभी और इसी समय अपने परशे से अपनी माता रेणुका का वध करना होगा।

यह सुनते ही परशुराम को बड़ा आश्चर्य होता है, और वे बहुत ही क्रोधित अवस्था में कहते हैं कि “हे ब्रह्मा” अर्थात हे ब्रह्मदेव मुझे आपने ये किस संकट में डाल दिया, परशुराम द्वारा ऐसा कहने का तात्पर्य था कि हे भाग्य विधाता ब्रह्मा जिस माँ ने मुझे जन्म दिया आज मुझे उसी का वध करने के लिए समय मुझे बाध्य कर रहा है, और फिर अपने आप को सँभालते हुए अपने परशे से अपनी ही माँ का सिर काट देते हैं।

इसके बाद उनके पिता उनसे बहुत प्रसन्न होते हैं, और कहते हैं कि हे बेटा परशुराम अब तुम मुझसे जो  माँगना है माँगो, मै तुम्हें वचन देता हूँ, इस पर परशुराम ने कहा कि हे पिता श्री अगर कुछ देना ही चाहते हो तो मेरी माँ को पुनः जीवित कर दो। ऋषि जमदग्नि बहुत ही प्रतापी ऋषि थे उन्होंने अपनी शक्ति रेणुका को जीवित कर दिया, तत्पश्चात रेणुका के चरित्र के प्रति उनके मन में जो शंका थी वह भी गई।

उसके बाद परशुराम अपने उद्देश्य की प्राप्ति के रास्ते पर निकल पड़ते हैं, अपने आश्रम के ब्राह्मण शिष्यों को लेकर अपनी एक सेना तैयार करते हैं, और क्षत्रियों के विरुद्ध एक बड़े लड़ाई का आह्वान कर देते हैं, जिसमें राजा सहत्रार्जुन सहित उनके 21 साथी राजाओं का सर्वनाश अर्थात वध करते हैं और उनके रक्त को एक कुंड में संगृहीत करते हैं।

इस लड़ाई को जीतने के पश्चात् वे भगवान शिव के संहारक रूप को पूरा करने बाद भगवान विष्णु के पालक रूप को धारण करते हैं और लोगों को शिक्षा-दीक्षा प्रदान करने के कार्य में स्वयं को विस्थापित कर देते हैं, परन्तु क्षत्रियों के प्रति उनके मन में ईर्ष्या कुछ इस तरह से घर कर चुकी थी कि वे क्षत्रियों को शिक्षा-दीक्षा प्रदान नहीं करते थे।

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परशुराम त्रेतायुग में

Image Source : Lokmat News Hindi
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जैसा कि हमने पहले ही आपको बताया है कि भगवान शिव द्वारा दिया गया शिव धनुष परशुराम ने राजा जनक को भेंट कर दी थी, और वह शिव धनुष राजा जनक के राजमहल में रखा हुआ था, एक दिन जनक पुत्री सीता ने उस शिव धनुष को उठा लिया था, और यह बात जैसे ही राजा जनक को पता चली उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ क्योंकि वह धनुष कोई साधारण धनुष नहीं था, और उसे कोई साधारण प्राणी उठा भी नहीं सकता था।

इस बात से प्रभावित होकर राजा जनक ने यह निर्णय लिया कि जो भी इस शिव धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाकर इसे तोड़ेगा उसी से मै अपनी पुत्री सीता का विवाह करूँगा, और इसके लिए एक बड़े स्वयम्बर का आयोजन हुआ जिसमें अयोध्या के राजकुमार राम और लक्ष्मण भी आये थे, स्वयम्बर शुरू हुआ और जब बड़े-बड़े योद्धागण उस धनुष को उठा भी नहीं पाए तो राजा जनक निराश हो गए।

राजा जनक की निराशा को देखकर गुरु विश्वामित्र का आदेश पाकर दशरथ पुत्र राम ने उस शिव धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाया और तोड़ दिया, तत्पश्चात वहाँ पर परशुराम का आगमन होता है, और शिव धनुष को टूटा हुआ देखकर वे क्रोधित हो जाते हैं, जिसके बाद परशुराम और लक्ष्मण के बीच लम्बे समय तक वाद-विवाद होता है, और उस वाद-विवाद में परशुराम द्वारा लक्ष्मण को सम्भोदित करके बोला गया एक संवाद बड़ा ही प्रसिद्द है जिसे हम यहॉँ प्रस्तुत करने जा रहे हैं…..

              मुझको सीधा ब्राह्मण न जान, मै क्षत्रिय कुल का द्रोही हूँ, निज बाल ब्रह्मचारी हूँ मै भृगवंशी हूँ निर्मोही हूँ।                          मेरे इस लौह कुल्हाड़े ने स्वर्णिम की नदी बहा दी है, इस आर्य भूमि पर बहुत बार क्षत्राणी रांड करा दी है।।

बहुत देर तक परशुराम और लक्ष्मण के बीच वाद-विवाद के बाद श्री राम बीच में आते और उनके बीच में आने के कुछ समय पश्चात परशुराम को यह ज्ञात हो जाता है कि यह कोई साधारण पुरुष नहीं हैं, बल्कि साक्षात् नारायण के अवतार हैं, तब जाकर कहीं वहाँ का वातावरण शांत होता है, और उसके बाद सीता जी का विवाह श्री राम  होना निश्चित होता है।

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परशुराम द्वापरयुग में

Image Source : TV9 Bharatvarsh
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द्वापर युग में भगवान परशुराम भीष्म पितामह के गुरु रहे थे, तत्पश्चात वे कुन्ती के प्रथम पुत्र कर्ण के भी गुरु रहे हैं। द्वापर युग में परशुराम ने पूरी पृथ्वी कश्यप ऋषि को दान कर दी थी, वे अपने सारे अस्त्र और शस्त्र भी ब्राह्मणों को दान कर रहे थे, यह जानकर बहुत से ब्राह्मण उनसे शक्तियाँ मांगने पहुँच रहे थे, उसी समय गुरु द्रोणाचार्य ने भी उनसे कुछ शस्त्र लिए थे, जब ये बात कर्ण को पता चली तो वे भी जनेऊ धारण करके परशुराम के पास शस्त्र लेने पहुँच गए जबकि वे ब्राह्मण नहीं थे।

जब कर्ण ब्राह्मण के वेश में परशुराम से मिले तब तक वे अपने सारे शस्त्र दान कर चुके थे, लेकिन कर्ण के अंदर सीखने की प्रवृत्ति को देखकर परशुराम ने कर्ण को अपना शिष्य बना लिया। लेकिन एक दिन जब परशुराम काफी बूढ़े हो चुके थे, और जंगल में अभ्यास करते समय परशुराम बहुत थक गए थे, इसलिए वे जंगल में ही एक पेड़ के नीचे लेट गए और कर्ण भी वहीं बैठ गए ताकि वे अपने गुरु के सिर को अपनी गोद में रख सकें।

परशुराम कर्ण की गोद में गहरी नींद में सो रहे थे, तभी एक खून चूसने वाला कीड़ा कर्ण की जांघ में घुस गया और कर्ण का खून चूसने लगा, जिससे कर्ण को बहुत भयंकर दर्द हो रहा था, उनके जांघ से रक्त की धार भी बह रही थी, लेकिन वे टस से मस भी नहीं हुए क्योंकि उनके शरीर के हिलने से कहीं उनके गुरु परशुराम की नींद ना ख़राब हो जाए, लेकिन जब धीरे-धीरे रक्त की धार परशुराम के शरीर तक पहुँची तो उनकी नींद खुल गई, और उन्होंने देखा कि वह खून कर्ण का था और उस कीड़े ने कर्ण के शरीर को काफी गहरा घाव भी दिया था लेकिन वे उस दर्द को सह गए थे।

तब परशुराम ने कर्ण की ओर बड़े गौर से देखा, और परशुराम को यह ज्ञात हुआ कि कर्ण ब्राह्मण नहीं है और उसने झूठ बोलकर उनसे शिक्षा हासिल किया तो वे कर्ण के ऊपर बहुत क्रोधित हुए और उसको यह श्राप दिया कि जब भी उसे परशुराम द्वारा दी गयी शक्तियों की जरुरत पड़ेगी वह अपनी सारी विद्यायें भूल जायेगा।

परशुराम के उस श्राप के कारण ही महाभारत के युद्ध के दौरान वही हुआ, जब अर्जुन और कर्ण के बीच भीषण युद्ध हो रहा था तब आवश्यकतानुसार कर्ण कोई भी दिव्यास्त्र नहीं चला सका क्योंकि उस समय परशुराम के श्राप की वजह से कर्ण दिव्यास्त्रों का ज्ञान भूल गया था, जिसके कारण ही वह महाभारत के युद्ध में अर्जुन से हार गया था, और वीर गति को प्राप्त हो गया था।

दोस्तों, आशा करता हूँ कि यह आर्टिकल आपके ज्ञान के भंडार को पहले से और बेहतर बनायेगा साथ ही साथ आपको बुद्धजीवियों की श्रेणी में लेकर जायेगा, तो आज के लिए सिर्फ इतना ही, अगले आर्टिकल में हम फिर मिलेंगे, किसी नए टॉपिक के साथ, तब तक के लिए, जय श्री कृष्णा..जय श्री कृष्णा..जय श्री कृष्णा।

लेखक परिचय

इस वेबसाइट के संस्थापक अमित दुबे हैं, जो दिल्ली में रहते हैं, एक Youtuber & Blogger हैं, किताबें पढ़ने और जानकारियों को अर्जित करके लोगों के साथ शेयर करने के शौक के कारण सोशल मीडिया के क्षेत्र में आये हैं और एक वेबसाइट तथा दो Youtube चैनल के माध्यम से लोगों को Motivate करने तथा ज्ञान का प्रसार करने का काम कर रहे हैं।

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